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मतभेद और आलोचना
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अथवा यह भी संभव है कि संस्कृत में ही यह 'अवाय' हो परन्तु कुछ लोगों ने इसे प्राकृत का रूप समझकर संस्कृत में उपाय बना लिया हो । ताम्बर सम्प्रदाय में 'अपाय' पाठ बहुत प्रचलित है और दिगम्बरों में 'अबाय' । दिगम्बराचार्य अकलंकदेव दोनों का समन्वय बड़ी खुबी से (१) करते हैं। उनका कहना है कि "दोनों पाठ ठीक हैं। संशय में दो कोटियाँ थीं, अवाय में एक कोटि बिलकुल दूर हो जाती है जब कि दूसरी कोटि पूरी तरह गृहीत हो जाती है | पहिली के अनुसार अपाय नाम ठीक है दूसरी के अनुसार अवाय नाम ठीक है । अपाय अर्थात दूर होना, नष्ट होना आदि, अवाय अर्थात् गृहण होना ।" खैर, यह तो नाममात्र - का मतभेद हुआ । इसके स्वरूप में भी मतभेद है |
विशेष वश्यक कारने ( २ ) अपशय के विषय का मतभेद इस प्रकार बतलाया है - "कोई कोई आचार्य दो कोटियों में से असत्य कोटि को दूर करने को अपाय कहते हैं और सत्यकोटि के ग्रहण करने को धारणा कहते हैं | | अकलंकदेवने जो अगय और अवाय में अर्थभेद बतलाया है उसको ये अपाय और धारणा कहते हैं । ]
१ किमयमपाय उतावाय इति उभयथा न दोषोऽन्यतरवचनेऽन्यतरस्यार्थ गृहीतत्वात् । यदा न दाक्षिणात्योऽयमि यपायं त्यागं करोति तदोच्य इत्यवायोधिगमोऽर्थगृहीतः तः । यदा वादाच्य इत्यत्रायं करोति तदा न दाक्षिणात्योऽयमित्यपायोऽर्थगृहीतः । १-१५-१३ । राजवार्तिक ।
[ २ ] केइ त बिसेसावणयणमत्तं अवायमिच्छति सन्भूयत्थविसेसावधारणं धारणं बेंति । ५८५ | कासह तय न बह रेगमत्तओऽवगमणं भवे भूए । सम्भूयसमण्णपओ तदुभय ओकासह न दोसो । १८६ | सच्चो विय सोडवायो मेये वा होंति पंचवत्थूणि । हवं चिय चउहा मई तिहा अन्नहा हाई । १८७ १