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मतिज्ञान और श्रुतज्ञान
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अमूर्त्तिक पदार्थ को नहीं जान सकते । यह प्रश्न प्राचीन विद्वानों के सामने भी खड़ा हुआ था परन्तु मतिज्ञान की ठीक परिभाषा भूलजाने से इस प्रश्नका उनसे ठीक समाधान न हुआ । पूज्यपाद सर्वार्थसिद्धि [१] में कहते हैं-- अनिन्द्रिय नामका करण है, उससे पहिले धर्म अधर्म आदि का अवग्रह होता है, उसके बाद श्रुतज्ञान उस विषय में प्रवृत्त होता है ।"
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पूज्यपाद का यह उत्तर बिलकुल अस्पष्ट और टालमटूल है, क्योंकि मनके द्वारा धर्म द्रव्यका अनुभव तो होता नहीं है । हां, अनुमान होता है । अगर अनुमान [ अर्थ से अर्थान्तर का ज्ञान ] श्रुतज्ञान है तो धर्म द्रव्य का यह श्रुतज्ञान कहलाया न कि मतिज्ञान, मन के द्वारा धर्म आदि का अवग्रह किसी भी तरह सिद्ध नहीं होता । यही कारण है कि अकलंकदेवने धर्मादि के अवग्रहादि का उल्लेख नहीं किया; सिर्फ 'मन का व्यापार होता है' इतना ही कहा है । और श्लोकवार्तिककारने इस प्रश्न से किनारा काट लिया है (२) ।
सिद्धसेन गणने इस प्रश्न का समाधान दूसरी तरह किया है । वे कहते हैं कि 'पहिले श्रुतज्ञान से धर्मद्रव्य का ज्ञान होता है पीछे जब वह उसका ध्यान करता है तब मतिज्ञान (३) होता है ।
(१) अनिन्द्रियाख्यं करणमस्ति तदालम्बनो नोइन्द्रियावरणक्षयोपशमलब्धिपूर्वक उपयोगोऽवमहादिरूपः प्रागेवोपजायते । ततस्तत्पूर्वं श्रुतज्ञानं तद्विषयेषु स्वयोग्येषु व्याप्रियते । स० सि० २-२६ ।
(२) नोइन्द्रियावरण क्षयोपशमलव्ध्यपेक्षं नोइन्द्रियं तेषु व्याप्रियते । त०
राज० १-२६-४ |
(३) मतिज्ञानी तावत् श्रुतज्ञानेनोपलब्धेष्वर्थेषु यदाऽक्षरपरिपाटीमन्तरेण स्वभ्यस्तविद्यो द्रव्याणि ध्यायति तदा मतिज्ञानविषयः सर्वद्रव्याणि । त०मा० टाका १-२७