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मतिज्ञान और इरुतज्ञान
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[ २४५ जमीन के भीतर चीटियों के नगर होते हैं, उनमें सड़कें होती हैं. रक्षक चींटियाँ, रानी चींटी, आदि के उनमें दल होते हैं । वे विजातीय चींटियों से लड़ती हैं। इस प्रकार एक तरह की संगठित समाजरचना उनमें होती है । न्यूनाधिक रूप में अन्य कीड़ों तथा प्राणियों के विषय में भी यही बात कही जा सकती है । केवल मनके विषय में ही यह प्रश्न नहीं है, किन्तु आज वैज्ञानिकों ने वृक्षों में भी पाँचों इन्द्रियाँ साबित की हैं। सुस्वर, सुगंध दुर्गंध का उनके ऊपर जैसा प्रभाव पड़ता है वह यंत्रों द्वारा दिखला दिया गया है । इससे जैन शास्त्रों में वर्णित एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय आदि भेद भी शङ्कनीय मालूम होने लगते हैं । परन्तु जैन शास्त्रों के देखने से मालूम होता है कि वे भी इस विषय में उदासीन नहीं हैं, वे भी इस बात से परिचित हैं कि एकेन्द्रिय आदि जीवों पर पाँचों इन्द्रियों के विषयों का प्रभाव पड़ता है, इसलिये किसी न किसी रूप में उनने भी एकेन्द्रिय आदि जीवोंके न्यूनाधिक रूपमें पाँचों इन्द्रियाँ और मनको स्वीकार किया है । इसलिये उनके श्रुतज्ञान भी होता है ।
नंदी सूत्रकी टीका में लिखा है :--
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“जिसके तर्कवितर्क ढूँढना खोजना, सोच विचार नहीं है वह असंज्ञी है । सम्मूर्छिमपंचेन्द्रिय विकलेन्द्रिय आदि को असंज्ञी समझना चाहिये । उनके उत्तरोत्तर थोड़ा थोड़ा मन होता है इसलिये वे थोड़ा थोड़ा जानते हैं संज्ञी पंचेन्द्रियों की अपेक्षा सम्मूर्छिम पंचेन्द्रिय अस्पष्ट या थोड़ा जानते हैं । उससे कम चतुरिन्द्रिय आदि । सबसे कम एकेन्द्रिय क्योंकि उसके