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मतभेद और आलोचना
[ २६७ उपकरण होता है जैसे पहिले शस्त्र होता है पीछ शक्ति आती है" । इन दोनों मतों में सर्वार्थसिद्धि का मन ही ठीक मालूम होता
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है । क्योंकि निर्वृत्ति और उपकरण दोनों ही द्रव्येन्द्रिय हैं इसलिये इनको शक्तिरूप कहना उचित नहीं । अगर उपकरण को शक्तिरूप कहा जाता है तो लब्धिरूप भावेन्द्रिय को क्या कहा जायगा ? दूसरी बात यह है कि उपकरण शब्दका जैसा अर्थ है उसके अनुसार किसी वस्तु की शक्ति को उपकरण कहना उचित नहीं मालूम होता । तीसरी बात यह है कि पहिले उपकरण और अर्थ के संयोग को व्यञ्जन कहा गया है। अगर उपकरण कोई शक्ति है तो उसके साथ किसी अर्थ का संयोग नहीं हो सकता । संयोग किसी द्रव्यके साथ कहा जा सकता है, न कि शक्तिके साथ । अगर कहा भी जाय तो जिसकी वह शक्ति है उसके साथ ही संयोग कहा जायगा, न कि शक्ति के साथ | ऐसी हालत में व्यञ्जन का लक्षण करते समय उपकरण और अर्थ का संयोग कहने की अपेक्षा निर्वृत्ति और अर्थ का संयोग कहना उचित होगा। इसलिये सर्वार्थसिद्धि में कही गई उपकरण की परिभाषा ठीक मानना पड़ती है ।
यहाँ तक के विवेचन से इतना सिद्ध होता है कि अन्य विययों के समान इस विषय में भी जैनाचार्यों में खूब मतभेद है, और आचार्योंने अपनी इच्छा के अनुसार जोड़तोड़ किया है; साथ
ही इस समस्या को पूर्णरूप से सुलझाने में भी वे असफल रहे हैं। किस ग्रंथ के विवेचन में क्या त्रुटि है, यहाँ संक्षेप में इसका वर्णन किया जाता है । ..