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पाँचवाँ अध्याय
उमास्वातिकृत तत्त्वार्थ भाष्यका यह वक्तव्य सर्वार्थसिद्धि के अनुकूल है परन्तु भाष्य के टीकाकार सिद्धसेनगणीने जो इनका अर्थ किया है वह सर्वार्थसिद्धि के विरुद्ध है । सर्वार्थसिद्धिकार जिसे बाह्यनिर्वृत्ति कहते हैं उसे ये आभ्यंतर निर्वृत्ति ( १ ) कहते हैं और सर्वार्थसिद्विकार जिसे बाह्यपकरण कहते हैं उसे भाष्य टीकाकार बाह्य निर्वृति कहते हैं और स्पर्शन इन्द्रिय में बाह्य आभ्यन्तरका प्रायः निषेध करते हैं । उपकरण के विषय में उनका कहना है कि " निर्वृत्ति में जो ग्रहण करने की शक्ति है वह उपकरण है, निर्वृत्ति और उपकरण का क्षेत्र एक ही है । आगम में उपकरण के बाह्य आभ्यन्तर भेद नहीं किये गये हैं यह किसी आचार्य का ही सम्प्रदाय मालूम (२) होता : है। निर्वृत्ति को इसलिये पहिले वहा कि पहिले निर्वृत्ति होती है, पीछे
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१ शष्कुल्यादिरूपा बहिरुपलभ्यमानाकारा निर्वृत्तिंका, अपरा तु अभ्यन्तरनिर्वृत्तिः नानाकारं कार्यान्द्रयमसंख्येयभेदत्वादस्य चान्तर्बहिर्भेदी निर्वृत्तेन काश्चित्प्रायः । बाह्या पुनर्निवृत्तिश्चित्राकार वन्नोपनिबद्धुं शक्या यथा मनुप्यस्य श्रोत्रं समं नेत्रत्रयोरुभयपातः । अश्वस्य मस्तके नेत्रयोरुपरिष्टात्तीक्ष्णाग्रम् इत्यादि भेदादन्हुविधाकाराः ।
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२ तच्च स्वविषयग्रहणशतियुक्तं खंगस्येवधारा छेदनसमर्था तच्छक्तिरूपमिन्द्रियान्तरं निर्वृत्तौ सत्यपि शक्त्युपधातैर्विषयं न गृह्णाति तस्मान्निर्वृत्तेः श्रवणादिसंज्ञके द्रव्येन्द्रिये तद्भावादात्मनोऽनुपघातानुग्रहाभ्यां यदुपकारि तदुपकरणेन्द्रियं भवति, तच्च बहिर्वर्ति अन्तर्वर्त्ति च निर्वृत्ति द्रव्येन्द्रियापक्षयाऽस्यापि द्वैविध्यमावेद्यते । यंत्र निर्वृचिद्रव्योन्द्रयं तत्रोपकरणेन्द्रियमाप न भिन्नदेशवर्ति तस्येति कथयति तस्याः स्त्रविषयग्रहणशक्ती निर्वृत्तिमध्यवर्तिनां वात् आगमे तु नास्तिक चिदन्तर्बहिर्मेंद उपकरणेत्याचार्यस्यैव कुतोऽपि सम्प्रदायः । एवमेतदुभयं दव्यन्दियमभिधीयतं तद्भावेऽप्यग्रहणात् — उपकरणत्वान्निमित्तत्वाच्च । निवृत्तेरादो अभिधा जन्मक्रम प्रतिपादनार्थं तद्भावेहमुपकरणसद्भावात् शस्त्र शक्तिवत् ।
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