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मतभेद और आलोचना [ २६९ सरीखी हो जाती है । उससे चौथा दोष भी निकल जाता हैं।
नंदीमत्र की व्याख्या भी अगर विशेषावश्यक के अनुकरण में न की जाय तो तत्त्वार्थभाष्यके समान उसमें भी तीन दोष नहीं रहते । परन्तु उसमें एक नयी शंका है। नंदीसूत्र में अन्यक्त को व्यंजनावग्रह सिद्ध करके भी रूप का भी व्यंजनावग्रह बतलाया है । परन्तु यह बात ठीक नहीं है, क्योंकि चक्षुसे व्यंजनावग्रह नहीं होता।
सवार्थसिद्धि-के अनुसार अवग्रह की व्याख्या में उपर्युक्त चारों दोष नहीं रहते; परन्तु वे व्यंजन का अर्थ उपकरण इन्द्रिय न कर के “ अव्यक्त " अर्थ करते हैं । यह अर्थ अनेक दृष्टियों से अनुचित है।
पहिली बात तो यह है कि व्यंजन का अर्थ 'प्रगट होना या प्रगट होने का कारण' ही होता है न कि अव्यक्त । दूसरी बात यह है कि 'व्यंजनस्यावग्रहः' यह सूत्र 'अर्थस्य' इस सूत्र का अपवाद है। यदि 'अर्थस्य' इस सूत्र में 'अर्थ' शब्दका अर्थ 'व्यक्त' किया होता तो 'व्यंजन' शब्दका अर्थ 'अव्यक्त' कहना उचित कहलाता; परन्तु सर्वार्थसिद्धिकार 'अर्थ' शब्दका अर्थ 'गुणी' करते हैं और 'इन्द्रियों से गुणका सन्निकर्ष होता है' इस मत का खण्डन करते हैं । तब क्या व्यंजन में गुणी नहीं होता ! क्या वह सिर्फ गुणका होता है ? यदि नहीं तो, इस सूत्र में अपवाद विधि क्या आई ! इन कारणों से व्यंजन का अर्थ ठीक नहीं है। ..
इस प्रकार उपर्युक्त सभी ग्रंथकारों ने कुछ न कुछ त्रुटि रक्खी है और एक त्रुटि तो ऐसी है जो सभी में एक सरीखी है।