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मतभेद और आलोचना [२६३ है। उस समय ज्ञान बहुत थोड़ा है इसलिये वह अव्यक्त है, बहिरों की तरह अज्ञान नहीं है।"
व्यंजनावग्रह का इसी प्रकार का विवेचन ज़रा स्पष्टता के साथ सिद्धसेन गणीने तत्त्वार्थभाष्य की टीका में किया है । वे कहते हैं
"जिस समय स्पर्शन आदि उपकरण इन्द्रियों का स्पशादि आकारपरिणत पुद्गलोंके साथ संबंध होता है और यह कुछ है' ऐसा ज्ञान नहीं होता किन्तु सोते हुए या उन्मत्त पुरुष की तरह सूक्ष्म ज्ञानवाला होता है, उस समय स्पर्शन आदि इन्द्रिय शक्तियों से मिले हुए पुद्गलों से जितनी विज्ञानशक्ति प्रगट होती है वह व्यञ्जन [पुदलराशि ] का ग्राहक व्यञ्जनावग्रह [१] कहलाता है।
व्यञ्जनावग्रह का यह विवेचन सत्य के समीप पहुँच जाने पर भी अस्पष्ट है । इन्द्रिय, अर्थ और संयोग ये तीनों ही व्यञ्जन [२] कहे गये हैं परन्तु व्यञ्जनावग्रह में इन्द्रियग्रहण कैसे हो सकता है ? अर्थावग्रह में भी विशेष अर्थका ग्रहण नहीं होता तब व्यञ्जनावग्रह में अर्थग्रहण कैसे आ जायगा ? और संयोग का ज्ञान तो संयोगियों के ज्ञान के बिना हो नहीं सकता, इसलिये यहाँ संयोग का ग्रहण कैसे होगा ? यदि कहा जाय कि व्यञ्जन का अर्थ अव्यक्त है तब
(१) यदोपकरणेन्द्रियरथ स्पर्शनादेः पुद्गलैः स्पर्शायाकारपरिणतः सम्बन्ध उपजातो मवति न च किमप्यदिति गृह्णाति किन्त्वव्यक्तविज्ञानोऽसौ सुप्तमत्तादि सूक्ष्मावबाधसहितपुरुषवत् इति तदा तैः पुद्गलैः स्पर्शनाधुपकरणेन्द्रियसंश्लिष्ट. स्पर्शायाकारपारणतयुद्गलराशेयजंनाख्यस्य प्राहिकाऽवग्रह इति मण्यते । १-१८
(२) व्यंजनशब्देनोपकरणेन्द्रियं शब्दादिपरिणतं वा द्रव्यं तयोःसम्बन्धो वा गृह्यते । नन्दी टीका ( मलयगिरि) ३५ |