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२४६ । पाँचवाँ अध्याय मनोद्रव्य प्रायः है ही नहीं । सिर्फ बहुत ही थोड़ा बिलकुल अव्यक्त मन उनके पाया जाता है जिससे उनके आहारादि संज्ञाएँ होती हैं (१)"
विशेषावश्यक भाष्य [२] में कहा है:
"पृथ्वीकायिकादि जीवों के जिस प्रकार द्रव्येन्द्रिय बिना भावेन्द्रिय ज्ञान होता है उसी प्रकार उनके द्रव्यश्रुत के अभाव में भावश्रुत जानना चाहिये।"
" असंज्ञी जीवों के संज्ञाएँ बहुत थोड़ी होती हैं इसलिये वे संज्ञी नहीं कहलाते । जिस प्रकार एकाध रुपया होने से कोई धनवान नहीं कहलाता, साधारण रूप होने से कोई रूपवान नहीं
(१) यस्य पुनास्ति ईहा अपाहो मार्गणा गवेषणा चिन्ता विमर्शः सोऽसंज्ञीति लभ्यते । स च पम्मार्छम पञ्चेन्द्रिय विकलेन्द्रियादिविज्ञेयः । सहि स्वल्पस्वल्पतरमनोलब्धिसम्पन्नवादस्फुटमस्फुटतरमर्थ जानाति । तथाहि संन्नि पञ्चेन्द्रियापेक्षया सम्मृर्छिमपञ्चन्द्रियोऽस्फुटमर्थ जानातेि, ततोऽप्यस्फुटं चतुरिन्द्रियःततोऽप्यस्फुटतरं त्रीन्द्रियः ततोऽस्फुटतरं द्वान्द्रियः ततोऽप्यस्फुटतयकेन्द्रियः तस्य प्रायो मनोद्रव्यासम्भवात् केवलमव्यक्तमेव किश्चिदतीवाल्पतरं मनो दृष्टव्यं यदशादाहारादिसंज्ञा अव्यक्तरूपाः प्रादुभ्यन्ति । नन्दी टीका मूत्र ३९ ।
(२) जह सुहुमं भाविंदिय नाणं दबिंदियावरोहे वि । तह दव्वसुयाभावे माक्सुयं पत्थिवादीणं । १०३ । टीका में विस्तृत विवेचन है। एकेन्दिरयों पर पांचों इन्द्रियों के विषय का प्रभाव बताया है और पाँचों ही इन्द्रियावरण का क्षयोपशम माना है इसप्रिकार पण्णवणा सूत्र के नव में सूत्र की टीका में वृक्षों को पंचेन्द्रिय सिद्ध किया है । और बाह्येन्द्रियों के न होने से उन्हें एकान्द्रय माना है। पंचेदियो वि बउलो नरोव्व सव्वविसयोवलम्भाओ। तहवि न भण्णइ पंचिंदिओ ति बझिान्दियाभावा ।। ततो न भावेन्द्रियाणि लौकिक व्यवहारपथावतीणेकेन्द्रियादिव्यपदेशनिवन्धन किन्तु द्रव्योन्द्रियाणि ।