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पाँचवाँ अध्याय
दोनों इन्द्रियाँ अप्राप्यकारी हैं अर्थात् पदार्थ का स्पर्श किये बिना
पदार्थ को जानती हैं ।
९ - व्यञ्जनावग्रह चार इन्द्रियों से होता है, इसलिये उसके चार भेद हैं। अर्थावग्रह पाँच इन्द्रिय और मनस होता है इसलिये उसके छः भेद हैं । इसी प्रकार ईहा, अवाय और धारणा के भी छ: छः भेद हैं । इस प्रकार मतिज्ञान के कुल ( ४+६+६+६=२८) अट्ठाईस भेद हैं ।
१०- विषय के भेद से इन सब भेदों के बारह बारह भेद हैं इसलिये मतिज्ञान के कुल ३३६ (२८x१२ = ३३६) भेद होते हैं । बारह भेद निम्नलिखित हैं- बहु, एक, बहुविध, एकविध, क्षिप्र, अक्षिप्र, अनिसृत, निसृत, अनुक्त, उक्त, ध्रुत्र, अध्रुव ।
बहु बहुत पदार्थों का ज्ञान । एक = एक पदार्थ का ज्ञान । बहुविध = बहुत तरह के पदार्थों का ज्ञान ! एकविध = एक तरह के पदार्थों का ज्ञान । क्षिप्र - शीघ्र ज्ञान । अक्षिप्र = देरी से होनेवाला ज्ञान । अनिसृत [२] = एक अंशको निकला हुआ देखकर पूर्ण अंशका ज्ञान या समान पदार्थ को देखकर दूसरे पदार्थ का ज्ञान । जैसे--पानी के
(१) वधुस्स पदेसादी वत्थुग्गहणं दुवत्धुदेसं वा । सयलं वा अवलंबिय अणिस्सिद अण्णवत्थुगई । ३१२ | पुक्खरगहणे काले हत्थिस्य वदण गवय गहणे वा । वत्थंतर चंदस् य घेणुस्स य बोहणं च हवे | ३१३ / गोम्मटसार जीवकांड । एवं अनुमानस्मृतिप्रत्यभिज्ञानतर्काख्यानि चत्वारि मतिज्ञानानि अनिसृतार्थविषयाणि केवलपरोक्षाणि एक देशतोऽपि वैशथाभावात्, शेषाणि ... बह्वाद्यर्थविषयाणि मतिज्ञानानि सांव्यवहारिक प्रत्यक्षाणि । गो० जी० टीका ।