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२५६] पाँचवाँ अध्याय
___ " औत्पत्तिकी आदि बुद्धि भी अवग्रहादि रूप है । फिर दोनों में विशेषता क्या है ? इसका उत्तर यह है कि औत्पत्तिकी आदि बुद्धियों में शास्त्रों का अनुकरण नहीं होता। यही इन दोनों
परन्तु यहाँ प्रश्न तो यह है कि अवग्रहादि भेद जब इरुतनिश्रित और अश्रुतनिश्रित में पाये जाते हैं तब वे सिर्फ रुतनिश्चित के ही भेद क्यों माने जाय ? वास्तव में अवग्रहादिक को श्रुतनिश्रित या अश्रुतनिश्रित के मूलभेद नहीं मानना चाहिये ।।
इधर औत्पत्तिकी आदि को अरुतनिश्रित कहा है परन्तु वैनयिकी में स्पष्ट ही रुतनिश्रितता है । नदी के टीकाकार [१] इस विषय में कहते हैं
"यद्यपि श्रुताभ्यासके बिना वैनयिकी बुद्धि नहीं हो सकती परन्तु इसमें श्रुतका अवलम्बन थोड़ा है इसलिये इसे अश्रुतनिश्रित में शामिल किया है।"
इसके अतिरिक्त यह भी एक विचार की बात है कि अवग्रह, ईहा, अव.य, धारणा को इरुतनिश्रित कहने का कारण क्या है ? इनके साथ श्रुतका ऐसा कौनसा सम्बन्ध है जो अश्रुतनिश्रित के साथ नहीं है । कीड़ी आदि को भी अवग्रह आदि ज्ञान होता है। उनमें श्रुतसंस्कार क्या है ! और नन्दी सूत्र आदि में जो अश्रुत
(१) नन्वश्रुतनिश्रिता बुद्धयो वक्तुमभिप्रेताः ततो यथस्याः त्रिवर्गसूत्राथंगहीतसारत्वं ततोऽश्रुतनिश्रितत्वं नोपयते, नहि श्रुताम्यास मन्तरेण त्रिवर्गसूत्रार्थ गृहीतसारत्वं सम्भवति । अत्रोच्यते-इह प्रायोवृत्तिमाश्रित्याश्रुतनिश्रित वमुक्त, ततः स्वल्पश्रुतमावेऽपि न कश्चिद्दोषः । नंदी टीका २६ ।
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