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मतभेद और आलोचना
[ २५७ निश्रित के उदाहरण दिये गये हैं उनमें एक भी ऐसा नहीं है जिसमें पूर्व श्रुतसंस्कार न हो ।
अगर यह कहा जाय कि ईंहामें विशेषनिर्णय करने के लिये विशेष शब्दव्यवहार की आवश्यकता होती है वह शब्दव्यवहार रतसंस्कार के बिना नहीं हो सकता इसलिये इसे श्रुतनिश्रित कहा है । परन्तु यह कहना भी ठीक नहीं मालूम होता क्योंकि इससे भी ज्यादः शब्दव्यवहार तो अश्रुतनिश्रित में करना पड़ता है । इसके अतिरिक्त अवग्रह तो बिना शब्दव्यवहार के भी होता है तब अवग्रह को रुतनिश्रित क्यों कहना चाहिये ?
निश्रित अश्रुतनिश्चित के वर्तमान भेदों में कुछ न कुछ गड़बड़ी जरूर रहगई है या आगई है। मालूम होता है कि इसी से आचार्य उमास्वाति ने अपने तत्रार्थाधिगम में इन भेदों का बिलकुल उल्लेख नहीं किया न तत्त्वार्थ के टीकाकारों ने किया है ।
फिर भी यहां मतिज्ञान के रहतनिश्रित और अश्रुतनिश्रित भेदों का निषेध नहीं किया जाता सिर्फ उनके लक्षण आदि विचारणीय कहे जाते हैं । अवग्रह, ईहा आदि को श्रुतनिश्रित के भेद मानना ठीक नहीं है । दोनों की परिभाषाएँ निम्नलिखित करना चाहिये । श्रुतज्ञान से किसी बात को जानकर उस पर विशेष विचार करना इरुतनिश्रित और बाकी इन्द्रिय अनिन्द्रिय से पैदा होनेवाला स्वार्थज्ञान अस्रुतनिश्रित है। वैनयिकी बुद्धि को श्रुतनिश्चित में ही शामिल करना चाहिये।
अवग्रहादिके विषय में भी जैन शास्त्रों में बहुत से मतभेद पाये जाते हैं । विशेषावश्यक भाष्यकारने अन्य जैनाचार्योंके द्वारा