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मतभेद और आलोचना
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तो एक ही समयका है जब कि मनुष्य शब्द बोलने में असंख्य समय लगजाते हैं ।
४ -- अवग्रह को विशेषग्राही मानने से अवग्रह अनियत विशेषग्राही हो जायगा । किसी मनुष्य को ऐसा अवग्रह होगा कि ' यह कोई लम्बा पदार्थ है,' किसी को ऐसा अवग्रह होगा कि ' यह मनुष्य है ' किसी को होगा कि 'यह स्त्री है' आदि ।
विशेषावश्यक भाष्य की २७०-२७१-२७२ वीं गाथाओं में दस दोष दिये गये हैं, जिनमें से मुख्य मुख्य मैंने ऊपर दिये हैं ।
भाष्यकार के इस वक्तव्य में कुछ युक्ति होने पर भी दूसर जैनाचार्यों की तरफ से भी आपत्ति उठाई जा सकती है ।
१ यदि अत्रग्रह बिलकुल निर्विकल्प है तो उसमें और दर्शनोपयोग में क्या अन्तर रह जाता है ?
२ बिलकुल निर्विकल्प अवग्रह के बहु, बहुविध आदि बारह भेद कैसे हो सकते हैं ? और जब अवग्रह का काल सिर्फ एक समय का है, तब उसमें क्षिप्र, अक्षिप्र भेद कैसे आ सकते हैं ?
यहाँ भाष्यकार ने अर्थावग्रह के दो भेद किये हैं एक नैश्वयिक दूसरा व्यावहारिक । उनका कहना है कि ' जो एक समयवर्ती नैश्वयिक अवग्रह है उसमें बहु आदि बारह भेद नहीं हो सकते हैं | परन्तु भाष्यकार की यह युक्ति बहुत कमजोर है व्यावहारिक अवग्रह तो वास्तव में अपाय नामका तीसरा ज्ञान है, इसलिये वास्तव में व्यावहारिक अवग्रह के बारह भेद अपाय के बारह भेद हुए वास्तव में अवग्रह तो भेदरहित ही रहा । इतना