________________
२५८ ]
पाँचवाँ अध्याय
बताये हुए अवग्रहादिके लक्षणोंका खण्डन किया है । पहिले जो मैंने अवग्रह का लक्षण लिखा है वह दिगम्बर सम्प्रदायके अनुसार हैं। और श्वेताम्बर सम्प्रदाय के नैयायिकोंने भी उपर्युक्त लक्षणको माना है । परन्तु विशेषावश्यककार का उसके विरोध में निम्नलिखित वक्तव्य है ।
१ - अवग्रह में विशेषका ग्रहण नहीं होता किन्तु सामान्य मात्रका ग्रहण होता है । इस लिये 'यह मनुष्य है' इस प्रकारके ज्ञानको अवग्रह नहीं कह सकते । वास्तव में यह अपाय है । इसके पहिले जो अर्थ सामान्यका ज्ञान है वह अवग्रह है ।
२ - यदि अवग्रहमें विशेषग्रहण होता तो उसके पहिले हमें ईहाज्ञान मानना पड़ेगा (१) । सामान्यज्ञान से विशेषज्ञान होने में ईहा होना आवश्यक है । परन्तु अवग्रह के पहिले ईहा असंभव है । उसके पहिले तो व्यञ्जनावग्रह रहता है ।
३ - शास्त्र में अवग्रह एक समयका कहा ( २ ) है और वह अवक्तव्य, सामान्यमात्रग्राही और नामजात्यादिकी कल्पना [३] रहित है । तब उसमें मनुष्य आदिकी कल्पना कैसे हो सकती है ! अवग्रह
१ सो किमदो चणीहिर सद्द एव किह जुत्तो । अह पुनमीहिऊणं सद्दोत्ति मयं तई पुत्रं । २५७ । किं तं पुव्वं गहिअं जमाहओ सद्द एव विष्णाण अह पुव्वं सामण्णं जमीहमाणस्य सद्दोति । २५८ | अत्थोग्गहओ पुव्वं होयब्बं तस्स गहणकाले । पुव्वं च तस्स वंजणकालो सो अत्थ परिसुण्णो । २५९ । जर सद्दोचि न गहिअं न उ जाणइ जंक एस सदोपि । तमजुतं सामण्णे गहिए मग विसेसो | २६० ।
२ उग्गहे इक्कसमइए, अन्तो मुहुत्तिआ ईहा अन्तोमुहुतिए अवाए, धारणा सखेज्जं वा कालं असंखज्जं वा कालं । नन्दीसूत्र ३४
I
३ अव्यक्तमणिहेसं सामण्णं कप्पणारहियं । २६२ | बि० मा०