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पाँचवाँ अध्याय ही नहीं किन्तु जब उसमें इतना भी विशेष भान नहीं होता कि यह रूप या रस है, तब इन्द्रियों के भेद से उसके छः भेद भी नहीं बन सकते हैं । इसलिये वर्तमान में दर्शनोपयोग जिस स्थान पर है उस स्थान पर अर्थावग्रह आ जायगा तब इसके पहिले दर्शनोपयोग की मान्यता न रह सकेगी।
इसके अतिरिक्त व्यञ्जनावग्रह का भी एक प्रश्न है कि व्यञ्जनावग्रह का स्थान क्या होगा ?
___ अवग्रह के दो भाग हैं व्यञ्जनावग्रह और अर्थावग्रह । अर्थावग्रह के पहिले व्यञ्जनाग्रह माना जाता है । इसमें पदार्थ का अव्यक्तग्रहण होता है। परन्तु जैनाचार्यों में इस विषय में भी बहुत मतभेद है । यह बात सर्वमान्य है कि व्यञ्जनावग्रह अर्थावग्रह के पहिले होता है और सिर्फ चार ही इन्द्रियों से होता है। सर्वार्थसिद्धिकार ने एक उदाहरण से इस बात को इस तरह स्पष्ट किया है--
जैसे किसी मिट्टी के नये वर्तनपर पानी की एक बूंद डालो तो वह तुरंत सूखजाती है, परन्तु एकंक बाद दूसरी बूंद डालनेपर धीरेधीरे वर्तन गीला होने लगता है । इसी प्रकार शब्दादिक भी इंद्रियों से प्रारम्भ में व्यक्त नहीं होते परन्तु धीरे धीरे व्यक्त होते हैं। व्यक्त होना अर्थावग्रह है और अव्यक्त रहना व्यञ्जनावग्रह [१] है ।
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१ यथा जलकण द्वित्रिसिक्तः शरावोभिनवो नार्दीभवति स एव पुनः पुनः सिच्यमानः शनैस्तिम्यते, एवं श्रोत्रादिचिन्द्रियेषु शब्दादिपरिणताः पुद्गला द्विघ्यादिषु समयेषु गृह्यमाणा न व्यक्तीभवन्ति पुनः पुनरवग्रहे सति व्यक्तीमवन्ति । सर्वार्थसिद्धि १-१८ । राजवार्तिक में भी ऐसा ही कथन है ।