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मतिज्ञान और श्रुतज्ञान
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उत्तर - द्रव्यश्रुत, किसी भी ज्ञान का कार्य हो सकता है । मतिज्ञान से (१) किसी अर्थ को जान कर जब हम बोलते हैं तब द्रव्य इत मतिज्ञान का कार्य है, जब इरुतज्ञान से जानकर बोलते हैं तब भाव का कार्य है ।
प्रश्न- द्रव्यश्रुत, भावश्रुत का कार्य भी है और कारण भी है । दोनों बातें कैसे संभव हैं ?
उत्तर- द्रव्यश्रुत, वक्ता के भावश्रुत का कार्य है और श्रोता के भाव का कारण है । वह एकही भारत का कार्य और कारण नहीं है ।
प्रश्न - श्रुतज्ञान से जाने हुए पदार्थ पर विशेष विचार करना और नयी खोज करना किस ज्ञान में शामिल है ?
(१) इस विषय में भी जैनाचार्यों में मतभेद है । तत्त्वार्थमायके टीकाकार सिद्धसेनगणी कहते हैं कि मतिज्ञानके द्वारा किसी अर्थका प्रतिपादन नहीं होसकता क्योंकि यह ज्ञान मूक है । मतिज्ञानसे जाना हुआ अर्थ ररुतसे ही कहा जा सकता है । केवलज्ञान यद्यपि मूक है लेकिन सम्पूर्ण अर्थको जाननेसे प्रधान है, इसलिये प्रतिपादन कर सकता है । ( मत्याद्यालांचितोऽर्थः न मत्यादिभिः शक्यः प्रतिपादयितुं मूकत्वान्मत्यादिज्ञानानां अतस्तैरालोचितोऽप्यर्थः पुनरपि श्रुतज्ञानेनैवान्यस्मै स्वपरप्रत्यायकेन प्रतिपाद्यते, तस्मात्तदेवालम्बितं युक्तं नेततराणि । केवलज्ञानं तु यद्यपि मूकं तथाप्यशेषार्थपरिच्छेदात् प्रधानमिति कृत्वाऽवलम्ब्यते । त० भा० टी० १-३५ ) परन्तु इस मतका विरोध विशेषावश्यकमें किया गया हैं। मैंने भी इस मतको स्वीकार नहीं किया है, क्योंकि इससे ईहा अवाब आदि सभी ज्ञान श्रुत कहलाने लगेंगे । मूक होने पर भी अगर केवलज्ञानसे प्रतिपादन होसकता है तो मतिज्ञानसे भी होसकता है । ' भासासंकम्प विसेसमेतओ वा सुयमजुत्तं ।' विशेषावश्यक १३४ | अर्थात् भाषाके संकल्प मात्रसे किसी ज्ञानको रक्त कहना ठीक नहीं है।