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पाँचवाँ अध्याय
दूसरे अर्थका जितना ज्ञान होगा वह सब ररुतज्ञान कहलायेगा । यदि ऐसा माना जायगा तो चिन्ता (तर्क) अभिनिबोध (१) अनुमान श्रुतज्ञान कह लायगा । मतिज्ञान के ३३६ भेदों में ऐसे बहुत से भेद हैं जो एक पदार्थ से दूसरे पदार्थ के ज्ञानरूप हैं, वे सब श्रुतज्ञान कहलायेंगे । परन्तु वे मतिज्ञान ही ( २ ) माने जाते हैं । इसलिये गोम्मटसार (३) आदि का लक्षण अतिव्याप्त है ।
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प्रचलित भाषा में जिसे हम शास्त्रज्ञान कहते हैं वही श्रुतज्ञान है, बाकी सब मतिज्ञान है। जैन शास्त्रों के निम्नलिखित वर्णन भी मतिश्रुतकी इस परिभाषा को स्पष्ट करते हैं ।
[क] श्रुतज्ञान के जहाँ भी कहीं भेद किये गये हैं, वहाँ अंगबाह्य और अंगप्रविष्ट किये गये हैं । शास्त्र के भेदों को ही इरुतके भेद कहा गया, इससे मालूम होता है कि शास्त्रज्ञान ही श्रुतज्ञान है ।
[ख] जिस प्रकार ररुतज्ञान के विषय में सभी द्रव्यों का समावेश होता है, उसी प्रकार मतिज्ञान का विषय भी बतलाया ( ४ ) गया है । परन्तु प्रश्न यह है कि मतिज्ञान के द्वारा धर्म अधर्म आदि अमूर्तिक द्रव्यों का ज्ञान कैसे होगा ? किसी भी इन्द्रिय से हम
(१) तत्साध्याभिमुखो बोधो नियतः साधने तु यः । कृतोऽनिंद्रिययुक्तेनामिनिबोधः स लक्षितः । श्लोकवार्तिक १-१३-१२२ ।
(२) एतेषाम् श्रुतादिप्वप्रवृत्ते । सर्वार्थसिद्धि १-१३ ।
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(३) अत्थादो अत्यंतर मुवलंभ तं भणति सुदणाणं । गो० जी० ३१५ | (४) मतिश्रुतयो र्निबन्धो द्रव्ये व सर्व पर्यायेषु । त० अ० १ सूत्र २६ । द्रव्येषु इति बहुवचननिर्देशः सर्वेषां जीवधर्माधर्माकाशपुद्गलानां सम्प्रहार्थः । सर्वार्थसिद्धि |