________________
२३६ ]
पाँचवाँ अध्याय
•
आपत्तियों का यहाँ इसलिये कुछ मूल्य नहीं है कि ज्ञानों की प्रत्यक्षता परोक्षता का यह विचार मौलिक नहीं है । न्यायशास्त्र में आये हुए प्रमाण के लक्षण से लेकर उसके भेदप्रभेदों तक का जितना विवेचन है वह सब जैनेतर दार्शनिकों के साथ होनेवाले संघर्षण का फल है । आचार्यों की इन खोजों में सभी सत्यं है और वह महात्मा महावीर के मौलिक विवेचन से विरुद्ध नहीं गया है, यह नहीं कहा जा सकता । बल्कि यहाँ तक कहा जा सकता है कि पीछे के कुछ आचार्यों ने तो दूसरों का अन्ध अनुकरण तक कर डाला है । उदाहरण के लिये माणिक्यनन्दिके परीक्षामुख की एक बात लीजिये । इनने प्रमाण के लक्षण में 'अपूर्व' विशेषण डाला है, जिसे कि मीमांसकों के प्रभाव का फल कहना चाहिये । पहिले के जैनाचार्य पूर्वार्थग्राही को भी प्रमाण मानते हैं । बल्कि विद्यानन्दिने तो इस विषय को बिलकुल ही स्पष्ट लिखा है कि ज्ञान चाहे पूर्वार्थप्राही हो या अपूर्वाग्राही उसके प्रमाण होने में बाधा (१) नहीं है ।
यह तो एक उदाहरण है। ऐसी बहुत सी बातें विचारणीय हैं। प्रमाण की स्वपरव्यवसायात्मकता, उत्पत्ति में परतस्त्व, प्रत्यक्ष परोक्ष की परिभाषा, अनुमान के अंगों का विचार, हेतु के उपलब्धि अनुपलब्धि आदि भेद, प्रमाण का सामान्यविशेषात्मक विषय, आदि बातें सब पीछे की हैं, विचारणीय भी हैं । मूलजैनसाहित्य में इन बातों की चर्चा ही नहीं थी । दार्शनिक संघर्षण के कारण ये सब बातें
·
i
(५) तत्त्वार्थव्यवसायात्मज्ञानं मानमितायता लक्षणेन गतार्थत्वाद्वयर्थमन्यद्विशेषणम् ॥ १-१०-७७ | गृहीतमगृहीतं वा स्वार्थं यदि व्यवस्यति । तन्न लोके न शास्त्रेषु विजहाति प्रमाणताम् । १-१०-७८ ।