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ज्ञान के भेद
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इस प्रकार 'नोइंद्रिय' शब्द का वास्तविक 'मन' अर्थ करने में कोई बाधा नहीं है । नंदीसूत्र में जो अवधि आदि को नोइंद्रिय प्रत्यक्ष कहा है वह मानसिक प्रत्यक्ष है जो कि सत्य और मौलिक है । इस विवेचन से यह अच्छी तरह समझा जा सकता है कि जब से पांच ज्ञानों को दो भागों में बांटने की चेष्टा हुई तभी से इन ज्ञानों का स्वरूप भी विकृत हुआ है। तथा संगति बैठाने के लिये सांव्यहारिक आदि भेदों की कल्पना हुई है । इस भेद कल्पना ने अवधि आदि के स्वरूप को और भी विकृत कर दिया ।
इस प्रकार दूसरे दर्शनों के निमित्त से या संघर्षण से जैनाचार्यों को नयी ज्ञानव्यवस्था करनी पड़ी किन्तु उनको जब पांचज्ञानवाली मान्यता से समन्वय करना पड़ा तब उनको उसी कठिनाई का सामना करना पड़ा जिसका कि दो नौकाओं पर सवारी करने वाले को करना पड़ता है । इस चेष्टा से पांचों ज्ञानों का स्वरूप इतना विकृत होगया कि समन्वय का मुल्य न रहा, साथ ही पांच ज्ञानों की मान्यता अन्धश्रद्धा में विलीन हो गई ख़ास कर अवधि मन:पर्यय केवलज्ञान तो बिलकुल अश्रद्धेय होगये । जैनधर्म की पांच ज्ञानवाली मान्यता पर जो प्रत्यक्ष परोक्ष और उसके भेद प्रभेदों का आवरण पड़ गया है, उसको जब तक हम न हटायेंगे तबतक ज्ञानों क वास्तविक रूप की खोज न कर सकेंगे ।
इसलिये यह चर्चा मैंने यहाँ पर की है कि पाँच ज्ञानों के स्वरूप पर स्वतन्त्रता से विचार किया जा सके अमुक ज्ञान तो प्रत्यक्ष है इसलिये उसका ऐसा लक्षण नहीं हो सकता " इत्यादि
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