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संघ केवलियोंका स्थान
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भर लोकसेवा करते हैं तो अन्य केवलियों को क्या बाधा है ? कृतकृत्यका अर्थ इतना ही है कि उसे अपने कल्याण के लिये कुछ करना बाकी नहीं है । लोककल्याण करने से और उसके साधन जुटाने से कोई अकृतकृत्य नहीं होता ।
तीर्थंकर के पास केवलियों के रहने की बात दिगम्बरों को भी मान्य है । यदि केवली अपनी इच्छा से कहीं आ जा नहीं सकते, यहाँ तक कि हाथ पैर भी नहीं चला सकते तो केवली तीर्थंकर के साथ कैसे रहा करते हैं ? समवशरण में सामान्य केवलियों के अतिशयों का कोई उल्लेख शास्त्रों में नहीं मिलता । इसप्रकार संघ में केवलियों के स्थान से निःपक्ष पाठकों के लिये केवलज्ञान के विषय में कुछ संकेत अवश्य मिलता है ।
[ सर्वशत्त्रकी जांच ]
महात्मा महावीर चंपापुरके पूर्णभद्र वनमें ठहरे थे । वहाँ जमालि ( म. महावीर का दामाद ) आया और बोला कि आपके बहुतसे शिष्य केवली हुए बिना ही काल करगये, परन्तु मैं ऐसा नहीं हूँ, मैं केवली होगया हूँ। उसकी यह बात सुनकर इन्द्रभूति गौतम बोले “ जमालि ! यदि तुम केवली हो तो बोलो - जगत् और जीव नित्य है कि अनित्य? " जमालि इसका ठीक ठीक उत्तर न देसका फिर महात्मा महावीरने उसका समाधान १ किया ।
इस प्रकरण में विचारणीय बात यह है कि जमालिने सर्वज्ञत्वका अभिमान किया था इसलिये उसकी जाँच के लिये ऐसा प्रश्न करना
(१) त्रिषष्टि शलाकापुरुष चरित्र पर्व १० सर्ग ८