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उपसंहार
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वह उतना ही अधिक निराकुल हो, ऐसा नियम नहीं है । इसलिये समस्त जगत् के जानने की चिन्ता क्यों करना चाहिये ? हमें तो सिर्फ सुखोपयोगी ज्ञान की ही आवश्यकता है और उसी की पूर्णज्ञता ही सर्वज्ञता है 1
।
इस प्रकार प्रचलित सर्वज्ञता असम्भव होने के साथ अनावश्यक भी है । परन्तु इतने से ही खैर नहीं है किन्तु उसने मनुष्य समाज का घोर अहित किया है । पिछले कई हज़ार वर्ष से भारतवर्ष किसी भी क्षेत्र में प्रगति नहीं कर रहा है दूसरे देश जोकि भारत वर्ष से बहुत पिछड़े थे, वे आविष्कारों के भण्डार हो गये । उनने नई बातों की खूब खोजकी है और पुरानी आगे बढ़ाया है, उन्हें बालक से युवा बनाया है । के विद्वान् ऐसा नहीं कर सके इसका कारण यह बुद्धिमान नहीं थे । थे, परन्तु उनकी बुद्धि क़ैद हज़ार में नवसौ निन्यानवे विद्वानों के मन पर ये संस्कार सुदृढ़ छाप लगा चुके थे कि जो कुछ कहना था सर्वज्ञ ने कह दिया है, इससे ज्यादः कुछ कहा नहीं जा सकता, हम लोग सर्वज्ञ हो नहीं सकते, जो ज्ञान नष्ट हो गया है वह आज की ज्ञानतपस्या से आ नहीं सकता । इस प्रकार के संस्कारों को पैदा करनेवाली सर्वज्ञत्वकी यह विचित्र परिभाषा ही है । सभी देशों में सर्वज्ञत्रकी इस विचित्र परिभाषा ने नानारूपों में मनुष्य की बुद्धि को क़ैद किया है, हज़ारों वर्ष तक मनुष्य की प्रगति के मार्ग में रोड़े अटकाये हैं । आचार और आत्मशुद्धि का रोधक मिथ्यात्व या नास्तिकत्व ज्ञान के क्षेत्र में आकर प्रगति के मार्ग में पिशाच बनकर बैठा है और लाखों
खोजों को खूब
परन्तु हमारे यहाँ
नहीं था कि यहाँ
करदी गई थी ।