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पाँचवाँ अध्याय चार मेदवाली मान्यता स्वीकार कर लीगई । पीछे जैन विद्वानों ने स्वयं वर्गीकरण किया और दो भेद माने ।
इन दोनों मान्यताओं के प्रचलित होनेपर भी पाँच भदों के साथ समन्वय करना अभी बाकी ही रहा । प्रमाण के दं या चार भेद माने जावें, तो इनमें मत्यादि पाँच भेद किस प्रकार अन्तर्गत किये जावे-यह प्रश्न बाकी रहा, जिसका समाधान पिछले आचार्यों ने किया । उपलब्ध साहित्य पर से यही कहा जा सकता है कि इस प्रकार का पहिला प्रयत्न उमास्वातिने किया । उनने परोक्ष में मति श्रुत को और प्रत्यक्ष में अवधि, मनःपर्यय, और केवल को शामिल किया। इसके पहिले अवधि, मनःपर्यय, केवलज्ञान के विषय में प्रत्यक्ष परोक्ष की कल्पना न थी। मतिज्ञान को या उसके एक अंश को ही प्रत्यक्ष माना जाता था। यद्यपि कुंदकुंदने भी इस प्रकार प्रत्यक्ष परोक्ष का समन्वय किया है परन्तु जब तक कुंदकुंद का समय उमास्वाति के पहिले निश्चित न हो जाय तब तक उमास्वाति को ही इस समन्वय का श्रेय देना उचित है ।
उमास्वाति के इस समाधान के बाद एक जटिल प्रश्न फिर . खड़ा हुआ । वह यह जिस ज्ञानको दुनियाँ प्रत्यक्ष कहती है, और अनुभव से भी जो प्रत्यक्ष सिद्ध होता है, उसे परोक्ष क्यों कहा जाय ? यदि इस प्रत्यक्ष को परोक्ष कहा जायगा तो अनुमान वगैरह से इसमें क्या भेद रहेगा ?
उमास्वाति से पीछे होनेवाले आचार्यों ने इस प्रश्न के समाधान की चेष्टा की । नन्दी सूत्र में प्रत्यक्ष के दो भेद किये