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२३२ ] पाँचवाँ अध्याया है वह भी इस बातका साक्षी है कि यह नवीन कल्पना है। यहाँ मैं टीकाकार के वक्तव्य को शंका समाधान के रूपमें उद्धृत करता हूँ । टीकाकारने जो उत्तर दिये हैं वे बहुत विचारणीय हैं ।
प्रश्न-सांव्यवहारिक और पारमार्थिक भेद शास्त्र में तो मिलते नहीं हैं, फिर भाष्यकार (जिनभद्रगणी) को कहाँ से मालूम हुए ।
उत्तर-शास्त्रमें नहीं हैं, परन्तु दूसरी जगह इस तरह है किपरोक्षके दो भेद हैं; आभिनिबोधिक और श्रुत । इन दोनोंको छोड़ कर और कोई इंद्रिय ज्ञान नहीं है जिसे प्रत्यक्ष कहा जाय ।
प्रश्न- यदि ऐसा है तो मतिज्ञानके भीतर जो साक्षात् इन्द्रिय ज्ञान है, उसे पारमार्थिक प्रत्यक्ष मानो और जो लिंगादिसे उत्पन्न अनुमानादि मतिज्ञान है उसे परोक्ष मानो । इस प्रकार मतिज्ञान प्रत्यक्ष में भी शामिल रहेगा और परोक्षमें भी। जिनने इंद्रिय ज्ञानको प्रत्यक्ष कहा है उनका कहना भी ठीक होगा और जिनने मतिज्ञानको परोक्ष कहा है, उनका कहना भी ठीक होगा।
उत्तर- इन्द्रिजन्य ज्ञानको प्रत्यक्ष मानने पर यह छठा ज्ञान होजायगा । इसलिये इन्द्रियजन्य ज्ञान को मतिज्ञानके भीतर ही मानना चाहिये और मतिज्ञान परोक्ष है, इसलिये इन्द्रियजन्य ज्ञान भी परोक्ष कहलाया । इसी प्रकार मनोजन्य ज्ञान भी परोक्ष सिद्ध हुआ।
प्रश्न-आगममें मनसे पैदा होनेवाले ज्ञानको परोक्ष कहाँ कहा है ?
उत्तर- मनोजन्य ज्ञानको परोक्ष भलेही न कहा हो परन्तु मतिश्रुतको तो परोक्ष कहा है और मनोजन्य ज्ञान मतिश्रुतके भीतर है इसलिये वह भी परोक्ष कहलाया ।