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ज्ञान के भेद
[ २३१ गये-इन्द्रिय प्रत्यक्ष नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष । इन्द्रिय प्रत्यक्ष में स्पर्शन आदि प्रत्यक्ष शामिल किये गये । नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष में अवधि आदि । बाद के आचार्यों ने सांव्यवहारिक, पारमार्थिक नाम से इन प्रत्यक्षों का उल्लेख किया । नन्दी सूत्रमें मतिज्ञान को प्रत्यक्ष और परोक्ष [१] दोनों में शामिल किया है। उधर अनुयोगद्वारसूत्र में मति ज्ञानको सिर्फ प्रत्यक्ष कहा है । अन्त में अकलंक आदि ने इन सब गुत्थियों को सुलझाकर प्रमाण के व्यवस्थित भेद किये जिनमें पाँचों ज्ञानों का भी अन्तर्भाव हुआ । सर्वार्थसिद्धि में [२] प्रकरण आने पर भी इन्द्रिय प्रत्यक्ष को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष नहीं कहा गया, सिर्फ इन्द्रियज्ञान की प्रत्यक्षता का ही खण्डन किया गया है । इससे मालूम होता है कि पूज्यपाद के समय तक प्रत्यक्ष के सांव्यवहारिक और पारमार्थिक भेदों की कल्पना नहीं हुई थी । अथवा वह इतनी प्रचलित नहीं हुई थी कि पूज्यपाद को उसका पता होता ।
श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने कदाचित सबसे पहिले प्रत्यक्ष के सांव्यवहारिक और पारमार्थिक दो भेद कहे हैं [३] | जिनभद्रगणिकी इस नवीन कल्पना को भाष्य के टीकाकार ने पूर्ण शास्त्रानुकूल सिद्ध करने के लिये जो एड़ी से चोटी तक पसीना बहाया
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(2) परोवखणाणं दुविहं पण्णत्तं तं जहा आभिणिवोह अनाणपरोक्खं सुअनाणपरीक्खं च । नन्दी २४ |
(२) स्यान्मतामिन्द्रियव्यापारजनितं ज्ञानं प्रत्यक्षं व्यतीतेन्द्रियविषयव्यापारं परोक्षं इत्येदविसंवादलक्षणमभ्युपगन्तव्यं इति तदयुक्तम् १-१२ |
(३) एगंलेण परोक्खं लिंगियमोहाय च पञ्चक्खं । इंदिय मणीभवं जं तं संवहार पच्चक्खं । विशेषावश्यक मान्य ९५ ।