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अन्य मतभेद [ १९७ हुआ कि पुरानी मान्यता भी सदोष है और दिवाकरजी की मान्यता भी सदोष है।
अन्य मतभेद
दर्शन ज्ञानकी समस्या सुलझानेका प्रयत्न सिर्फ दिवाकरजीने ही नहीं किया किन्तु अन्य लोगोंने भी किया है । सिद्धसेन गणीने अपनी तस्त्रार्थ टीकामें इन मतों का उल्लेख किया है और उनके खण्डनकी भी चेष्ठा की है।
प्रथम मतभेद-- निराकारका अर्थ निर्विकल्प और साकारका अर्थ सविकल्प करना ठीक नहीं, क्योंकि इससे केवलदर्शन शक्तिहीन होजायगा और मनःपर्ययमें भी दर्शन होगा। उनमें घटादि सामान्यका ग्रहण होनेपर भी ज्ञान ही हुआ न कि दर्शन | इसलिए आकारका अर्थ लिंग करना चाहिए । स्निग्ध, मधुर आदि शंख शब्दादिकमें जहाँ ग्राह्य पदार्थोंसे भिन्न किसी लिंगसे अथवा ग्राह्यसे अभिन्न किसी साधकसे जो उपयोग हो वह साकार उपयोग है। जो लिंगसे भिन्न साक्षात् उपयोग हो वह अनाकार है इससे पूर्वोक्त दोनों दोषों का परिहार होजायगा (१)।
सि० गणीका उत्तर २] तुम्हार यह कहना ठीक नहीं है।
१- साकारानाकारयोर्यत्केवलदर्शनेशत्यभाषः प्रसज्यते मनः पर्याये च दर्शनप्रसङ्गः तपोर्हि घटादिसामान्यग्रहणेऽपि वानमेव तन्न दर्शनमिति । तस्मादाकारो लिंगम् , स्निग्धमधुरादिशब्दादिषु यत्रलिङ्गेन प्राद्यार्थान्तरभूतन प्रायैकदेशेनं वा साधकेनोपयोगः स साकारः यः पुनर्विना लिंगेन साक्षात् सोनाकारः एवंसति पूर्वकं दोषद्वयं परिहृतं भवति ।
त.टी.२-९ २- तदेतदयुक्तम् यत्तावदुच्यते-केवलदर्शने सत्यभावः प्रसजाति का पुनरसौ शक्तिः ? यदि तावद्विशेषविषयः परिच्छेदः शक्तिशब्दवाच्यः तस्यामावश्चोयते