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पाँचवाँ अध्याय
प्रश्न- यदि स्वग्रहण दर्शन हैं और परग्रहण ज्ञान, तो जितने तरह का ज्ञान होता है उतने ही तरह का दर्शन होना चाहिये । उत्तर - ज्ञान विशेषग्रहणरूप है और उसका क्षेत्र विस्तृत है इसलिये उसके बहुत भेद हैं । दर्शन के बाद प्रत्यक्ष ज्ञान होता है और उसके बाद परोक्ष ज्ञानों की परम्परा चालू हो जाती है । इसलिये ज्ञान के भेद बहुत होते हैं । प्रत्यक्ष ज्ञान के मूल में दर्शन होता है, परीक्ष ज्ञान के मूल में दर्शन नहीं होता है । इसलिये दर्शन के सिर्फ उतने ही भेद हो सकते हैं जितने प्रत्यक्ष के होते
दूसरी बात यह है कि
हैं । परोक्ष सम्बन्धी भेद नहीं हो सकते । ज्ञानका भेद तो ज्ञेय के भेद से हो जाता है परन्तु आत्मा के ऊपर पड़नेवाले प्रभाव में इतना शीघ्र भेद नहीं होता । मतलब यह कि ज्ञान में जितनी जल्दी वर्गभेद हो सकता है उतना दर्शन में नहीं, क्योंकि दर्शन का विषय क्षेत्र सिर्फ आत्मा है ।
प्रश्न- दर्शन और ज्ञान की इस परिभाषा के अनुसार पदार्थ भी ज्ञानमें कारण सिद्ध हुआ । परन्तु जैन लोग तो ज्ञानकी उत्पत्ति में पदार्थ को कारण नहीं मानते ।
उत्तर - पदार्थको ज्ञानोत्पत्तिमें कारण नहीं मानने का मतलब यह है कि ज्ञानकी उत्पत्ति में पदार्थका विशेष व्यापार नहीं होता । जिस प्रकार देखनेके लिये आँखको कुछ खास प्रयत्न करना पड़ता है उस प्रकार पदार्थको दिखनेके लिये कुछ खास प्रयत्न नहीं करना पड़ता (१) । पछिके कुछ जैन नैयायिकोंने इस रहस्यको भुला दिया
(१) अथों विषयस्तयोयोगः सन्निपातो योग्यदेशावस्थानं । तस्मिन् सति