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दर्शन के भेद
[ २२५ टीका में इस प्रकार का स्पष्ट विधान है ।
उत्तर-'मनोदर्शन मानना और उसे अचक्षुदर्शन में शामिल रखना' इस प्रकार की मान्यता जैनाचार्यों में रही अवश्य है, परन्तु वह युक्ति और शास्त्र के विरुद्ध होने से उचित नहीं है । चक्षु और अचक्षु दर्शन का भेद अप्राप्यकारी का भेद है। तब अप्राप्यकारी मनोदर्शन प्राप्यकारी के भीतर शामिल कैसे होगा ? अभयदेवजीने मनको अचक्षु के भीतर शामिल तो किया परन्तु शंका का समाधान नहीं कर सके । वे कहते हैं कि "मन यद्यपि अप्राप्यकारी है, परन्तु वह प्राप्यकारी इन्द्रियों का अनुसरण करता है इसलिये उसे प्राप्यकारी इन्द्रियों के साथ अचक्षुमें शामिल (१) कर लिया। इस समाधान में कुछ भी दम नहीं है क्योंकि जिस प्रकार मन, प्राप्यकारी स्पर्शन आदि इन्द्रियों का अनुसरण करता है उसी प्रकार अप्राप्यकारी चक्षुका भी अनुसरण करता है। इसके अतिरिक्त वह अप्राप्यकारी भी माना जाता है। तब वह प्राप्यकारियों में शामिल क्यों किया जाय ? अन्य बहुत से आचार्योने चक्षुभिन्न इन्द्रिय दर्शन को अचक्षु कहा है । उसमें मनको नहीं गिनाया । उनके स्पष्ट न लिखने से यह मालूम होता है कि या तो वे मनोदर्शन को मानते ही न थे या उन्हें भी संदेह था जिससे वे स्पष्ट न लिख सके।
प्रश्न-मन से दर्शन क्यों न मानना चाहिये ?
उत्तर-मैं पहिले कह चुका हूं कि प्रत्यक्ष के पहिले दर्शन होता है, परोक्ष के पहिले नहीं । मन से बाह्य पदार्थों का प्रत्यक्ष
(१) मनसस्त्वप्राप्तकारित्वेऽपि प्राप्तकारीन्द्रियवर्गस्य तदनुसरणीयस्य बहुत्वात् तदर्शनस्य अचक्षुर्दर्शनशब्देन ग्रहणमिति । म. १. सूत्र ३७ । टीका ।
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