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२२२] पाँचवाँ अध्याय तो हमें सिर्फ चक्षुका ही ग्रहण होता है । यही कारण है कि दर्शन सामान्य कहागया है । मतलब यह कि कल्पनाजन्य विशेषताएँ न होने से दर्शनको सामान्य कहा है 'सामान्य' और 'विशेष' वास्तवमें 'ग्रहण' के विशेषण हैं न कि पदार्थके । 'सामान्य रूप ग्रहण' दर्शन है 'विशेषरूपग्रहण' ज्ञान है, न कि 'सामान्यका ग्रहण दर्शन' और 'विशेषका ग्रहण ज्ञान' । मालूम होता है 'सामान्यग्रहण' इस शब्द के अर्थमें गड़बड़ी हुई है । 'सामान्यग्रहण' इस पदके 'मामान्यरूप ग्रहण' और 'सामान्यका ग्रहण' ऐसे दो अर्थ होसकते हैं । पहिला अर्थ ठीक है किन्तु कोई आचार्य पहिला अर्थ भूलगये और दूसरा अर्थ समझे । पीछे इस भूलकी परम्परा चली, सामण्णं ग्रहणं' इस पाठ से पहिले अर्थका ही समर्थन होता है, जिस पाठको धवलकारने भी उद्धृत किया है । 'सामण्णग्गहण' । पाठ सिद्धसेन दिवाकरका है । इससे दोनों ही अर्थ निकलते हैं किन्तु उनने दूसरा ही अर्थ लिया है इससे यह भ्रमपरम्परा बहुत पुरानी मालूम होती है ।(१)
दर्शन की परिभाषा के विषय में जितना जैन साहित्य मिलता है उसको आधार लेकर अगर निःपक्ष विचार किया जाय तो पता लगेगा कि जैनाचार्यों ने भी संवेदन के विषय में काफी खोज की है।
ऊपर जो स्वसंवेदन रूप परिभाषा का विस्तार से वर्णन किया गया है उससे मालूम होता है कि इस परिभाषा में वे आठ बातें पाई जाती हैं जो भिन्न भिन्न जैनाचार्यों ने दर्शन के स्वरूप
(१) 'ज सामण्णग्गहणं दंसणमेयं विससियं गाणं' सं. प्र. २-१ । इसमें 'विससियं पद् 'ग्रहण का विशेषण हैं इसलिये 'सामण्ण पद भी ग्रहणका विशेषण ठहरा। इसलिये यहाँ भी सामण्णग्गहण में षष्ठीतत्पुरुष करना ठीक नहीं।