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उपयोगों का वास्तविक स्वरूप
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और पदार्थ की ज्ञानकारणता को असिद्ध करनेके लिये निष्फल प्रयत्न किया । जैन शास्त्रों में जहाँ भी अवग्रह आदि की उत्पत्तिका वर्णन किया गया है वहाँ अर्थ आवश्यक बतलाया गया है । 'इन्द्रिय और पदार्थ के सन्निपात (योग्य स्थान पर आना ) होने पर अवग्रह होता है' १ इस भाव का कथन सर्वार्थसिद्धि, लघीयस्त्रय, राजवार्त्तिक, लोकवार्त्तिक आदि ग्रन्थों में पाया जाता है । मतलब यह कि प्रत्यक्ष के लिये अर्थ आवश्यक तो है परन्तु इंद्रियोंके समान उसका विशेष व्यापार न होने से उसका उलेख नहीं किया जाता ।
प्रश्न - आप स्वरूपग्रहणको दर्शन कहते हो और वह युक्त्यागमसंगत भी मालूम होता है परन्तु 'सामान्यग्रहण दर्शन है' इस प्रकार की मान्यता क्यों होगई ? इस भ्रमका कारण क्या है ?
उत्तर- स्वरूपग्रहण वास्तव में सामान्यग्रहण ही है । ज्ञानमें ज्ञेयभेद से भेद होता है इसलिये हम उसे विशेषग्रहण कहते हैं, परन्तु दर्शन में ज्ञानके समान भेद नहीं होता इसलिये वह सामान्यग्रहण है । उदाहरणार्थ जब हमें चाक्षुष ज्ञान होता है तब टेबुल, कुर्सी, प ँग आदिका जुदा जुदा ग्रहण होता है । परन्तु इन सबके चक्षुःर्शन में
उत्पद्यते इत्यर्थ: । ननु अक्षवदर्थोऽपि तत्कारणं प्रसनमितिचेन्न तद्वयापारानुपलब्धेः नहि नयनादिव्यापारवदर्थव्यापारो ज्ञानोत्पत्ती कारणमुपलभ्यते तस्योदासान्या | लघीयस्त्रय टीका | अर्थ उदासीन है परन्तु हैं तो !
(१) अक्षार्थयोगे सत्तालोकोऽर्थाकारविकल्पर्धाः । अवग्रहे विशेषाकांक्षहावायो विनिश्रयः । लघीयाय ५ । विषयविषयिसन्निपातसमयानन्तरमायग्रहणमवग्रहः । सर्वार्थसिद्धि ११५ । विषयविषयिसन्निपातसमनन्तरमाद्यग्रहणमवग्रहः । त. राजवार्तिक १-१५ १ | अक्षार्थयोगजाद्वस्तुमात्रग्रहणलक्षणात् जातं यद्वस्तुमदस्य ग्रहणं तदवग्रहः । १-१५-२ श्लोकवार्त्तिक ।
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