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उपयोगों का स्वरूप
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पूर्वापर अविरुद्ध होते है, किन्तु पूर्वापर अविरुद्ध वचन सत्य भी होते हैं और असत्य भी होते हैं । अग्निमें से धूम निकलता है परन्तु अगर धूम न भी निकले तो अग्निका अभाव नहीं होजाता । इसी प्रकार असत्य से पूर्वापरविरुद्धतारूपी धूम निकलता है परन्तु यदि यह धूम न भी निकले तो असत्यतारूप अग्नि नष्ट नहीं होजाती । जैनियोंने अग्निको बुझानेकी अपेक्षा उसके धूम को रोकने की कोशिश अधिक की है । फल यह हुआ कि एकबार जो असत्य आया, वह फिर निकल न सका । उधर पूर्वापरविरुद्धता के रोकने का प्रयत्न भी असफल गया | जैनशास्त्र पूर्वापरविरोध से वैसेही भरे हुए हैं जैसे कि अन्य दर्शनोंके शास्त्र | किसी सम्प्रदाय में पूर्वापरविरुद्ध वचन हो तो इससे इतना अवश्य सिद्ध होता है कि उस सम्प्रदाय में स्वतन्त्र विचारक जरूर हुए हैं- उस में सभी लकर के फकीर नहीं थे ।
खैर, इस चर्चा को मैं यहाँ बन्द करता हूं । श्रुतज्ञान का जब प्रकरण आयगा तब देखा जायगा । यहाँ जो मैने शङ्काएँ उपस्थित की हैं वे इसलिये कि जिससे लोगों को सत्य के खोजने की आवश्यकता मालूम हो ।
उपयोगों का वास्तविक स्वरूप
पहिले जो दर्शन ज्ञान की चर्चा की गई है उससे इतना तो पता लगता है कि कई कारणों से सत्य परिभाषा लुप्त हो गई है धवलकार सिर्फ उस तरफ इशारा कर सके हैं। फिर भी दर्शन के विषय में इतना पता अवश्य लगता है
१ दर्शन सामान्य ग्रहण है । २ वह ज्ञानके पहिले होता है ।
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