________________
२१६ ]
- पाँचवाँ अध्याय
की कड़ी है । ज्ञाता को चाहे या मस्तिष्क को ही ज्ञाता मान
पदार्थ से आई
यह बात तो निश्चित है कि दर्शन ज्ञाता और ज्ञान के बीच हम आत्मा नामक स्वतंत्र द्रव्य माने लें ये दोनों ही ज्ञेय विषय को नहीं छूते, तब प्रश्न यह है कि दोनों में ज्ञेय ज्ञायक सम्बन्ध कैसे बनेगा जिससे ज्ञाता अमुक पदार्थ को ही जाने । अनुभव से पता लगता है कि जब हम किसी पदार्थ का प्रत्यक्ष करते हैं तब उसका कुछ न कुछ प्रभाव हमारी इन्द्रियों पर पड़ता है-जैसे हुई किरण आंख की पुतली पर प्रभाव डालती हैं, शब्द की लहर कानों की झिल्ली में कम्पन पैदा करती है इसी प्रकार नाक पर जीभ पर तथा शरीर की त्वचा पर पदार्थों का प्रभाव पड़ता है । इन्द्रियों पर पड़ने वाला यह प्रभाव पतले स्नायुओं द्वारा मस्तिष्क तक पहुँचता है तब इसका संवेदन होता है । यही दर्शन है । इसके बाद पर पदार्थ की जो कल्पना हुई वह ज्ञान है । इस कल्पना से ही हम घट पट आदि पदार्थों को जानते हैं इसलिये घट पटादि का प्रत्यक्ष सविकल्प कहलाता है । किन्तु उसके पहिले जो स्वरूप संवेदन होता है अर्थात् पर पदार्थ से आये हुए प्रभाव का संवेदन होता है वह दर्शन है उसमें घट पटादि की कल्पना नहीं होती इसलिये वह निर्विकल्प है ।
प्रश्न- पदार्थ द्वारा आया हुआ प्रभाव भी तो पर कहलाया तब उसका संवेदन स्वसंवेदन क्यों कहलाया ।
उत्तर -- ज्ञेय ज्ञायक भाव में ज्ञेयरूप से सिद्ध पदार्थ ही पर है । मतिष्क आदि वहां पर ज्ञेयरूप नहीं है वे तो आत्मा के साथ
1