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२१२ ] पाँचवाँ अध्याय पर विचार करने से भी श्रुतज्ञान होना चाहिये । तब श्रुतज्ञान को मतिपूर्वक ही क्यों कहा ? अवधिपूर्वक या मनःपर्ययपूर्वक भी क्यों न कहा ?
(८) दर्शन को सामान्यविषयक और अप्रमाण मानने में जो पहिले शंकाएँ कीगई हैं उनका समाधान क्या है ? ।
९-विभङ्गावधि के पहिले अवाधि दर्शन क्यों नहीं होता ? अवाधिज्ञान और विभङ्गावधि में ज्ञान की दृष्टि से क्या अन्तर है जिससे एकके पहिले अवधिदर्शन है और दूसरे के पहिले नहीं है ?
(१०) मिथ्यादृष्टिको ग्यारह अंग नव पूर्वसे अधिक ज्ञान क्यों नहीं होसकता ? जो यहाँतक पढ़ गया उसे पाँच पूर्व पढ़नेमें क्या कठिनाई है ?
और भी शंकाएँ हैं जिनका ठीकठीक उत्तर नहीं मिलता है। इसका मुख्य कारण यह कि आगमकी परम्परा छिन्नभिन्न होजानेसे
आगम इस समय उपलब्ध नहीं है । खासकर मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय, और केवल इन पाँचों ज्ञानोंका वास्तविक स्वरूप इस समय जैन शास्त्रोंमें स्पष्ट रूपमें नहीं मिलता । कुछ संकेत मिलते हैं, जिनकी तरफ लोगोंका ध्यान आकर्षित नहीं होता। यह भूल कभी की सुधर गई होती परन्तु जैनियोंको इन बातकी बहुत चिन्ता रही है कि हमारे शास्त्रोंमें पूर्वापरविरोध न आजावे । इसलिये जहाँ एक आचार्यसे भूल हुई कि सदाके लिये उस भूलकी परम्परा चली । उनको यह भ्रम होगया था कि अगर हमारे वचन पूर्वापरविरुद्ध न होंगे तो सत्य सिद्ध होजावेंगे । वे इस बातको भूलगये कि सत्य वचन