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२१०] पाँचवाँ अध्याय धवलकार ने एक नई परिभाषा निकाली जो पहिली परिभाषाओं से बहुत अच्छी थी। फिर भी वह अस्पष्ट और अधूरी है । आज उस पर भी विचार करने की बहुत जरूरत है ।
इस अध्यायके प्रारम्भमें जो मैंने प्रचलित मान्यताओं की संक्षिप्त सूची दी है, उस में से दर्शन ज्ञानकी कुछ चर्चा की गई है । परन्तु उस सूचीका बहुभाग विचारणीय है | इससे मालूम होगा कि म. महावीर के समयमें इन विषयों की मान्यता कुछ दूसरी ही थी । वह विकृत होगई है; उनका मर्म अज्ञात होगया है । इसलिये जबतक उनकी शुद्धि न कीजाय तबतक सब शंकाओंका ठीक ठीक उत्तर नहीं होसकता । यहाँ मैं शंकाओं की सूची रक्ता हूँ।
शंकाएँ (१) अवधि और मनःपर्ययमें मनकी सहायता नहीं मानी जाती, परन्तु आलापपद्धति में इन दोनोंको और नन्दीसूत्रमें केवलज्ञान को भी मानसिक कहा, इसका क्या कारण है ?
(२) मनःपर्यय ज्ञान अगर प्रत्यक्ष ज्ञान है तो उसके पहिले मनःपर्यय दर्शन क्यों नहीं होता ? अगर उसके पहिले ईहा आदि किसी ज्ञानकी जरूरत होती है, तो उसे प्रत्यक्ष क्यों कहते हैं ? क्योंकि जो ज्ञान दूसरे ज्ञानको अन्तरित करके होता है उसे प्रत्यक्ष नहीं कहते।
(३) मनःपर्यय ज्ञान अवधिज्ञानसे उच्च श्रेणी का है, फिर उसका क्षेत्र क्यों कम है ? अथवा मनःपर्यय अवधिसे उच्च श्रेणीका क्यों हैं ? अगर मनःपर्ययमें विशुद्धि ज्यादः बतलाई जाय तो विशुद्धि की अधिकता क्या है ? गोम्मटसार आदि ग्रंथों के अनुसार अवधिज्ञान