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पाँचवाँ अध्याय
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अन्यथा ज्ञान, सामान्य विशेषात्मक वस्तु को विषय कैसे करेगा १ १ उत्तर - यह लीपापोती इस बात का प्रमाण है कि जब कोई समर्थ विद्वान् अपने से पूर्वाचार्यों का विरोध करके भी किसी बात को प्रबल प्रमाणों से साबित कर देता है तब उसके पीछे के विद्वान् उसी के नये मत को भगवान की वाणी कहने लगते हैं और पुरानी मान्यताओं की भूल को छुपाने के लिये विचित्र ढंग से लीपापोती करते हैं । इसी प्रकार की यह लीपापोती अमृतचन्द्रसूरिने की है । न्यायशास्त्रियों ने दर्शन ज्ञानके विषय में जो विरुद्ध कथन किया था उसका कारण जो अमृतचन्द्रसूरिने बतलाया है वह बिलकुल पोचा है । दूसरों का खण्डन करने के लिये अपनी परिभाषा को अशुद्ध बना लेना कौनसी बुद्धिमानी है ! दूसरों को अपशकुन करने के लिये अपनी नाक कटाने के समान यह आत्मघात है | दूसरे लोग अगर निर्विकल्पको प्रमाण मानते हैं और जैन भी प्रमाण मानते हैं तब दूसरों की इस सत्य और अपने से मिलती हुई मान्यता का खण्डन क्यों करना चाहिये ? यदि कहा जाय कि ' वे सविकल्पक को प्रमाण नहीं मानते इसलिये उनके निर्विकल्पक का
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(१) ननु स्वरूपग्रहणं दर्शनमितिराद्धान्तेन कथं न विरोधः इतिचेन्न, अभिप्रायभेदात् । परविप्रतिपत्तिनिरासार्थं हि न्यायशास्त्रं ततस्तदभ्युपगतस्य निर्विकल्पक दर्शनस्य प्रामाण्यविघातार्थं स्याद्वादिभिः सामान्यग्रहणामित्याख्यायते । स्वरूपग्रहणावस्यायां छद्मस्थानां बहिरर्थविशेषग्रहणाभावात । प्रामाण्यं च बहिरर्थापेक्षयैव विचार्यते व्यवहारोपयागात् । न खलु प्रदीपः स्वरूपप्रकाशनाय व्यवहारिभिरन्विभ्यते । ततो बहिरर्थ विशेषव्यवहारानुपयोगाद्दर्शनस्य ज्ञानमेव प्रमाणं तदुपयोगात् विकल्पात्मकत्वात्तस्य । तत्वतस्तु स्वरूपग्रहणमेव दर्शनं केवलिन तयोर्युगपत्प्रवृत्तेः अन्यथा ज्ञानस्य सामान्यविशेषात्मक क्तु विषयत्वाभावप्रसंगात् । - लघीयाय टीका १-६