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श्रीधवलका भत
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उनका कोई भी निर्णय पुनर्विचारणीय न हो । अथवा भगवान का निर्णय आज उपलब्ध कहां है ? भगवान का उपदेश तो लोग भूल गये हैं, इसलिये तर्क से जो सत्य सिद्ध हो उसे ही भगवान की वाणी मानना चाहिये -- भले ही वह पूर्वाचार्यों के विरुद्ध हो, क्योंकि सत्य ही जैन धर्म है । "
अगर वलकार के मन में ये विचार न आये होते तो उनने प्राचीन मान्यता को बदलने का साहस न किया होता । धवलकार की यह नीति आज कल के विचारकों के लिए भी आदर्श है । पहिले भी सिद्धसेन दिवाकर आदि अनेक जैनाचार्य - जिनके मतों का उल्लेख ऊपर किया जा चुका है – इसी नीति पर चले थे
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शंका - धवलकार का मत ही वास्तव में सिद्धान्त मत है । उनके आगे पीछे के आचार्यों ने जो सामान्यावलोकन को दर्शन कहा उसका अभिप्राय दूसरा है। दूसरे दर्शनों की विरुद्ध बातों के खण्डन के लिए न्यायशास्त्र है । इसलिये दूसरों के माने हुए निर्विकल्पक दर्शन की प्रमाणता को दूर करने के लिये स्याद्वादियों ने सामान्य ग्रहण को दर्शन कहा । स्वरूपग्रहण की अवस्था में छद्मस्थों को बाह्य अर्थ का ग्रहण नहीं होता । प्रमाणता का विचार बाझ अर्थ की अपेक्षा से किया जाता है, क्योंकि वही व्यवहारोपयोगी है I दीपक को देखने के लिए ही दीपक की खोज नहीं की जाती । इसीलिये न्यायशास्त्री ज्ञान को ही प्रमाण मानते हैं क्योंकि वह व्यवहारोपयोगी है, दर्शन को प्रमाण नहीं मानते क्योंकि वह व्यवहारोपयोगी नहीं है । वास्तव में तो स्वरूपग्रहण ही दर्शन है