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पाँचवाँ अध्याय
तुमने केवल दर्शन में जो शक्तिका अभाव बतलाया है वहाँ शक्ति शब्दका क्या मतलब है ? यदि विशेष विषयके परिच्छेदको शक्ति कहते हो तो केवलदर्शनमें उसका अभाव हमें मंजूर है । यदि शक्तिका अर्थ सामान्य अर्थका ग्रहण है तो उसे दर्शन ही न कहसकेंगे क्योंकि उससे फिर क्या देखा जायगा ? मन:पर्यय दर्शनकी बात तुमने आगमके अज्ञानसे कही है। आगममें चार ही दर्शन बतलाये हैं । यहाँ हमें आगमानुसार बाल करना है । अपनी अक्के नमुने नहीं बतलाना है | भगवतीमें मनःपर्याय ज्ञानीके दो या तीन दर्शन ही बतलाये गये हैं, अवधिज्ञानवालेके तीन और अवधिज्ञान रहित दो | इसलिए मनःपर्याय में दर्शन नहीं होसकता ।
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यहाँ गणीजीने आगमकी दुहाई और बुद्धिकी निन्दा करके अपनी अन्धश्रद्धा का परिचय दिया है और विरोधी को दबाना चाहा है; परन्तु इससे विरोधीका खण्डन नहीं हुआ, उसका मतभेद खडा ही रहा है ।
बौद्धदर्शनमें प्रत्यक्षको निर्विकल्पक कहा है विरोधीका मत भी उसी तरहका मालूम होता है ।
ततोऽभिलषितमेव सद्गृहीतं स्यात् । अथ सामान्यार्थग्रहणं शक्त्यभावश्चचित ततस्तस्य दर्शनार्थतैवानुपपन्ना स्यात् । किं हि तेन दृश्यते ! यदप्युक्तं मनः पर्याये दर्शनप्रसङ्गः इति तदागमानवबोधादयुक्तम् । नह्मागमे मनः पर्यायदर्शनमस्तिः चतुः विधदर्शन श्रवणात् । आगम प्रसिद्ध चेहोपनिबध्यते न स्वमनिषिका प्रतन्यते इति । मनः पर्याय ज्ञानिनो हि भगवत्यामाशीविषोदेशके ( श. ८, उ. २. सु. ३२१) द्वेत्रीणि का दर्शनान्युक्तानि अतो गम्यते यो मनः पर्यायविदवधिमास्तस्य त्रयमन्यस्य द्वयम् अन्यथा त्रयमेवाभविष्यत् । तत्रागमप्रसिद्धस्य व्याख्या क्रियते । निर्विकल्पो ऽथनाकारार्थ यद्दर्शनं तन्निर्विकल्पकम् । अतो न मनःपर्यायदर्शनप्रसंगः। त. टी. २-९
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