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२०२] पाँचवाँ अध्याय । यदि विकल्प शब्दका अर्थ संकल्प-विकल्प किया जाय तो बारहवें गुणस्थान में जब कि एकत्व वितर्क शुक्लध्यान होता है निर्विकल्प ज्ञान मानना पड़ेगा क्योंकि वहाँ न तो कोई कषाय रहती है, न ज्ञानमें चंचलता रहती है । वह निर्विकल्प समाधिकी
अवस्था है । परन्तु वहाँ केवलज्ञान नहीं होता, इसलिये केवलज्ञानसे भिन्न ज्ञानोंको भी निर्विकल्प मानना पड़ेगा।
श्रीधवल का मत दिगम्बर सम्प्रदाय में सबसे महान और पूज्य ग्रन्थ श्रीधवल माना जाता है । श्रीधवल के मतको पिछले अनेक प्रथकारोंने सिद्धान्तमत कहा है । लघीयस्त्रय के टीकाकार अभयचंद्र सरि और द्रव्यसंग्रहके टीकाकार ब्रह्मदेव ने इस मतका उल्लेख किया है । जैनशास्त्रों की दर्शनज्ञान की चर्चा का यह मत बहुत विचारपूर्ण कहा जा सकता है । प्रश्नोत्तर के रूप में वह यहाँ उद्धृत किया जाता है।
प्रश्न-१ जिसके द्वारा जानते हैं देखते हैं वह दर्शन है, ऐसा कहने पर दोनों में क्या भेद रहेगा ?
उत्तर-२ दर्शन अन्तर्मुख है अर्थात् अपने को जानता है उसको चैतन्य कहते हैं। ज्ञान बहिर्मुख है वह पर पदार्थ को जानता है उसको प्रकाश कहते हैं। उनमें एकता नहीं हो सकती।
, दृश्यते ज्ञायतेऽनेनेति. दर्शनं इत्युच्यमान झानदर्शनयोरविशेषः स्यात् ।
२ इतिचेन्न, अन्तर्बहिर्मुखयोचित्प्रकाशयोदर्शनशानव्यपदेशमाजोरकत्व विरोधात् ।