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श्रधिवल का मत प्रश्न--१ आत्माको और बाह्यार्थ को जो जाने उसे ज्ञान कहते हैं "..-- यह बात जब सिद्ध है तब “त्रिकालगोचर अनन्तपर्यायात्मक जीवस्वरूप का अपने क्षयोपशम से संवेदन करना चैतन्य
और अपने से भिन्न बाह्यपदाथों को जानना प्रकाश यह बात कैस बन सकती है ? इसलिये ज्ञानदर्शन में भेद नहीं रहता ।
उत्तर-२ ज्ञानमें जिस प्रकार जुदी जुदी कर्मव्यवस्था है । अर्थात जैसे उसके जुदे जुदे विषय हैं वैसे दर्शन में नहीं हैं |
प्रश्न- ३ आत्माका और पर पदार्थ का सामान्य ग्रहण दर्शन और विशेष ग्रहण ज्ञान, ऐसा क्यों नहीं मानते ? । . उत्तर-४ किसी भी वस्तुका प्रतिभास हो उसके सामान्य और विशेष ये दोनों अंश एक साथ ही प्रतिभासित होंगे। पहिले अकेले सामान्य का और पीछे अकेले विशेष का प्रतिभास नहीं हो सकता।
प्रश्न-- (५) एकही समय में वस्तु सामान्य विशेष रूप प्रतिभासित भले ही हो, कौन मना करता है ?
१ त्रिकालगोचरानन्तपर्यात्मकस्य जीवस्वरूपस्य स्वक्षयोपशमवशेन संवेदनं चैतन्यं स्वतोव्यतिरिक्तबाझार्थावगतिः प्रकाशः इति अन्तर्बहिर्मुखयोश्चित्प्रकाशयोजीनात्यनेनामानं बाबमर्थमिति च सानामितिसिद्धत्वोदक-वं ततो न ज्ञानदर्शनयोर्मेदः
२ इतिचेन्न, ज्ञानादेिव दर्शनान प्रतिकर्मव्यवस्थाऽभावात । ३ तर्हि अस्तु अन्तर्बाह्यसामान्यग्रहणं दर्शनं विशेषग्रहणं झानम् । ४ इतिचन्न, सामान्य विशेषात्मकत्य वस्तुनो विक्रमणोपलम्भात् । ५ सोऽप्यस्तु न कश्चिद्विरोधः ।