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अन्य मतभेद
[२०१ आप निर्विकल्प । सविकल्प मानसिक है । उसके चार भेद हैं मति, रुत, अवधि और मनःपर्यय । निर्विकल्प मनरहित है, वह केवलज्ञान है। इसीप्रकार नयके भी दो भेद हैं सविकल्प और निर्विकल्प ।
देवसेन सूरिके इस वक्तव्यसे निम्नलिखित बातें सिद्ध होती हैं।
(१) अवधि और मनःपर्यय ज्ञान, इन्द्रिय और मनकी सहायता विना माने जात हैं परन्तु यह प्रचलित मान्यता ठीक नहीं है । अवधि
और मनःपर्ययभी मति इतके समान मानसिक हैं । यह मैं कहचुका हूँ कि नन्दीसूत्रमें केवलज्ञान को भी मानसिक प्रत्यक्ष कहा है।
(२) केवलज्ञान निर्विकल्प है इससे मालूम होता है कि केवलज्ञान केवदर्शनसे पृथक् नहीं है । अर्थात् वह त्रिकालत्रिलोकके पदार्थोंको भेद रूपसे विषय नहीं कर सकता। . (३) नयके भेद निर्विकल्प सविकल्प हैं । इससे मालूम होता है कि सिद्धसेन दिवाकरने जिसप्रकार दर्शनज्ञानका सम्बन्ध द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिकके साथ लगाया है उसीप्रकार देवसेन भी लगाना चाहते हैं।
यदि विकल्प शब्दका अर्थ 'भेद' कियाजाय तो समस्या और जटिल होजाती है । उस समय निर्विकल्पका अर्थ होगा अभेदरूप ज्ञान । तब तो केवलज्ञान, वेदान्तियोंकी या उपनिषदोंकी अद्वैतभावना-रूप होजायगा । वह त्रिलोकत्रिकालको जाननेवाला न रहेगा। इसके अतिरिक्त नयोंका निर्विकल्प' नामक भेद न बन सकेगा।