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दिवाकरजी का मतभेद
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है । अगर दर्शन सामान्य-विशेषको न जानेगा और ज्ञान सामान्य विशेषको न जानेगा तो अवस्तु को विषय करनेसे दोनों अप्रमाण हो जायेंगे (१) । ज्ञान और दर्शनका भेद मन:पर्यय ज्ञान तक (छद्मस्थके ) है । केवलीके ज्ञानदर्शनका भेद नहीं है (२) । सच तो यह है कि दर्शनभी एक प्रकारका ज्ञान है । दूर रहकर जाने गये ( अस्पृष्ट) पदार्थों के अनुमान - भिन्न ज्ञान को दर्शन कहते हैं (३) । अनुमानको दर्शन नहीं कहते । चक्षुरिन्द्रियको छोड़ कर बाकी इन्द्रियोंसे दर्शन नहीं होता, क्योंकि वे प्राप्यकारी हैं | मनसे होने वाले दर्शन को अचक्षु दर्शन [४] कहते हैं । इसीप्रकार सम्यग्दर्शन भी एक प्रकारका ज्ञान ही है (५) ।
१- दव्वडिओ वि होऊण दंसणे पज्जवट्ठिओ होइ । उवसामियाईभावं पडुच्च णा उ विवरी २-२ । दर्शनेऽपि विशेषांशो न निवृत्तः नापि ज्ञाने सामान्यांशः । टीका । निराकारसाकारोपयोगी तूपसर्जनीकृततदितराकारौं स्वविषयावभासकत्वेन प्रवर्तमानां प्रमाणं न तु निरस्तेतराकारों, तथाभूत वस्तुरूपविषयाभावेन निविप्रमाणत्वानुपपत्तरितरांश विकलकांशरूपोपयोग सत्तानुपत्तेश्च ।
षयतया
२- मणपज़ब णाणतो णाणस्स य दरिसणस्स य विसेसो । केवलणाण पुण दंसणं ति णाणं ति य समाणं । सं० २-३ ।
३ - गाणं अट्ठे अविसए व अत्थम्म दंसणं होइ । मोचूण लिंगओ जं गाई व विसएस ।
स०प्र० २-२५
४- अस्पृष्टेऽर्थरूपे चक्षुषा य उदेति प्रत्ययः स चक्षुर्दर्शनं ज्ञानमेव सत् इन्द्रियाणामविषये च परमाण्वादौ अर्थे मनसा ज्ञानमेव सद् अचक्षुर्दर्शनम् । स०प्र० टीका २-२५ ।
५- एवं जिपपण्णत्ते सद्दहमाणस्स मानओ भावे । पुरिसस्सामिपिनोहे दंसण सो वह जुत्तो ।
स.प्र २-३२ |