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पाँचवाँ अध्याय
दिवाकरजके इस वक्तव्य से कहना चाहिये कि उनने पुरानी मान्यताओं में खूब परिवर्तन किया है।
[१] ज्ञान, दर्शन और सम्यग्दर्शन ( सम्यक्त्व ) को उनने एकही बनादिया है जबकि ये जुदे जुदे माने जाते हैं।
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(२) दर्शन और ज्ञान दोनोंको उनने सामान्य विशेष- विषयी माना है । तथा दर्शनका द्रव्यार्थिक नयसे और ज्ञानका पर्यायार्थिक नयसे सम्बन्ध जोड़ दिया है ।
(३) स्पर्शनादि इन्द्रियोंसे उनने दर्शन नहीं माना । अर्थज्ञान के पहिले निर्विकल्पक प्रतिभास बौद्ध वैशेषिक (१) आदि अनेक दर्शनों ने माना है; परन्तु सभी लोग उसे ज्ञानरूप ही मानते हैं । ज्ञानसे भिन्न सत्ता सामान्य का प्रतिभास समझ में भी नहीं आता । केवल सामान्य या केवल विशेष को जैन लोग विषयरूप नहीं मानते इसलिये ज्ञान-दर्शन को जुदा जुदा समझना ठीक नहीं मालूम होता । इसके अतिरिक्त ज्ञान से भिन्न अगर दर्शन को स्वीकार कर लिया जाय तो सभी दर्शन एक सरीखे हो जायेंगे, उनमें विषय-भेद बिलकुल न होगा। क्योंकि सभी में सत्ता सामान्य का प्रतिभास है ।
ये सब ऐसी समस्याएँ थीं जिनका प्रचलित मान्यता से ठीक ठीक समाधान नहीं होता था । इसलिये दिवाकरजी ने इन परि
५-- चक्षुः संयोगाद्यनन्तरं घट इत्याकारकं घटत्वादिविशिष्टं ज्ञानं न सम्भवति पूर्व विशेषणस्य घटत्वादेर्शानाभावान । विशिष्टबुद्धी विशेषणज्ञानस्य कारणत्वात् । तथा च प्रथमतो घटघटत्वयोरव शिष्या नवगाह्येव ज्ञानं जायते तदव निर्विकल्पकम् । सि० मुक्तावली ५८