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उपसंहार
[ १८५ कारण सर्वज्ञाभासता है और सर्वज्ञाभासता अगर विद्वत्ताके क्षेत्र की चीन है तो सर्वज्ञता भी विद्वत्ताके क्षेत्रकी चीज़ है, दोनों में सिर्फ सत्य और मिथ्याका अन्तर हो सकता है, दोनोंके क्षेत्रका प्रचलित भेद नहीं हो सकता। मतलब यह है कि मिथ्याशास्त्रोंके ज्ञानी को ही सर्वज्ञम्मन्य कहना इस बात की निशानी है कि सत्यशास्त्रों के विशेषज्ञाता ही सर्वज्ञ हैं ।
सर्वविद्याप्रभुत्व दिगम्बर सम्प्रदाय में केवलज्ञान के जो अतिशय बताये गये हैं, उन में एक सर्वविद्याप्रभुत्व भी है । इस से मालूम होता है कि तीर्थंकर केवठी सर्वविद्याओं के प्रमु होते हैं अर्थात् वे सब शास्त्रों के विद्वान होते हैं । अतिशयों के वर्णनमें इस बात पर कुछ विवेचन किया गया है । यहाँ सिर्फ उस तरफ़ संकेत कराया गया है।
(सर्वन्न-चर्चा का उपसंहार) __ मर्वज्ञत्व के विषय में बहुत कुछ कहा गया है । थोडीसी शास्त्रीय चर्चा और बाकी है। वह चर्चा मैंने इसलिये नहीं की है कि उसका सम्बन्ध प्रमाण के अन्यभेदों के साथ है; इसलिये जब भेदप्रभेदों का वर्णन होगा तब उसका स्पष्टीकरण होगा। उस से भी सर्वज्ञत्व के ऊपर बहुत प्रकाश पड़ेगा । श्री धवला में जो दर्शनज्ञान के लक्षण, प्रचलित लक्षणों से भिन्न किये गये हैं, उनका खुलासा भी वहीं होगा । यहाँ तो मैं उपसंहार-रूप में दो तीन बातें कह देना चाहता हूँ।
कुछ लोग कहेंगे कि सर्वज्ञत्व की प्रचलित परिभाषा को न मानने से तीर्थंकरों का-खासकर महात्मा महावीरका-अपमान होता है । परन्तु उनको यह भ्रम निकाल देना चाहिये । असम्भव