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चौथा अध्याय
बात को अस्वीकार करने में किसी का अपमान नहीं होता । हाँ, अगर इस प्रकार की सर्वज्ञता सम्भव होती और फिर भी मैं कहता किम. महावीर सर्वज्ञ नहीं थे या जैन तीर्थंकर सर्वज्ञ नहीं होते, तब अपमान कहा जा सकता था । परन्तु यहाँ तो इस प्रकार की सर्वज्ञना ही असम्भव बताई गई है; इसलिये वह किसी में भी नहीं हो सकती । तब महात्मा महावीर में या अन्य किसी तीर्थंकर में भी कैसे होगी !
अगर मैं कहूँ कि तीर्थंकर में यह शक्ति नहीं है कि वे एक परमाणु को बिलकुल नष्ट कर दें; तो इसका यह अर्थ न होगा कि मैं तीर्थंकर को कमज़ोर बता रहा हूँ, उनकी अनंतवर्यिता में सन्देह कर रहा हूँ, और उनका अपमान कर रहा हूँ । जब किसी भी सत् पदार्थ का नाश होना असम्भव है तब परमाणु का भी नाश कैसे होगा ? और जिसका नाश हो नहीं सकता उसका नाश तीर्थंकर भी: कैसे कर सकते हैं ? यह कहने में तीर्थंकर का ज़रा भी अपमान नहीं, इसी प्रकार सर्वज्ञत्व अगर असम्भव है तो तीर्थंकर में भी वह कैसे होगा ?
कोई कहेगा कि अगर तीर्थंकर सब पदार्थ नहीं जानते तो वे मोक्षमार्ग कैसे बतायेंगे ! तो इसका उत्तर यह है कि तीर्थंकर मोक्षमार्ग के पूर्ण और सत्यज्ञाता हैं, इसलिये इस में कोई बाधा नहीं है ।
प्राणियों का लक्ष्य सुख हैं न कि ज्ञान। इसलिये उन्हें सर्वज्ञत्व नहीं चाहिये पूर्ण सुख चाहिये । सुख का सम्बन्ध निशकुलता से है न कि अधिक ज्ञान से। जो जितने अधिक पदार्थों को जाने