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महावीर और गोशाल [१८१ किया । गोशाल दाँत पीसता रहा और मुनियों का कुछ भी न कर सका तब गोशालके बहुत से शिष्य म. महावीर के अनुयायी हो गये
और कुछ गोशाल के ही अनुयायी रहे । पीछे गोशालक को अपने कार्य पर पश्चात्ताप हुआ । वह मर कर अच्युत स्वर्ग गया ........।
भगवती सत्र के गोशालविषयक लम्बे प्रकरण का यह सार है । जैन ग्रन्थ होने से इसमें गोशालक के साथ कुछ अन्याय हुआ हो, यह बहुत कुछ संभव है, परन्तु यह कदापि सम्भव नहीं है कि इसमें म.. महावीर की शान के खिलाफ कुछ कहा गया हो। फिर भी भक्त लोगों की दृष्टि में उन की शान के खिलाफ कुछ मालूम हो तो उसे स्वाभाविक वर्णन समझना चाहिये । दिगम्बर लोग इसे नहीं मानते, परन्तु यह किसी भी तरह सम्भव नहीं है कि श्वेताम्बर लोग म. महावीर का अपमान करने के लिये यह कथा गढ़ डालें। श्वेताम्बर भी म. महावीर के उतने ही भक्त हैं जितने कि दिगम्बर । इसलिये अगर वे कोई कल्पित बात लिखें तो वह ऐसी ही होगी जो म. महावीर का महत्व बढावे । अगर महत्व घटानेवाली मनुष्योचित स्वाभाविक घटना लिखी गई है तो समझना चाहिये कि वह सत्य के अनुरोध से लिखी गई है । खैर, गोशालक प्रकरण में निम्नलिखित बातें ध्यान देने लायक हैं।
१) श्रावस्ती नगरी के लोग महावीर को भी जिन समझते हैं और गोशालक को भी, इससे मालूम होता है कि दोनों की बाह्य विभूति आदि में कोई ऐसा अन्तर न था जैसा कि शास्त्रों में अतिशय आदि से कहा गया है; अन्यथा जन-साधारण भ्रम में न पड़ते ।