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चौथा अध्याय ३-ढंकने जब प्रियदर्शनाके पक्षको असत्य सिद्ध किया और म. महावीर के पक्षको सत्य सिद्ध किया तब उन्हें म. महावीर फिर सर्वज्ञ मालूम होने लगे इससे भी मालूम होता है कि सर्वज्ञता--असर्वज्ञता धार्मिक सत्य और असल्यका ही नामान्तर था न कि त्रिकालत्रिलोक का ज्ञान और अज्ञान ।
. . (महावीर और गांशाल ).
एकबार गोशालक अपने आजीवक संघ के साथ श्रावस्ती नागरी में आये । तब नगर के चौराहों तिगड्डों आदिपर जगह जगह लोग इस प्रकार की चर्चा करने लगे कि गोशालक जिन हैं, वे अपने को जिन कहते हैं और इस नगर में आये (१) हुए हैं । इसा समय महात्मा महावीर के मुख्य शिष्य इन्द्रभूति गोतम भिक्षा लेने नगर में गये । उनने भी सुना कि लोग गोशालक को जिन कहते हैं । उन्हें खेद हुआ और उनमें लौटकर महात्मा महावीर से पृछा कि लोग गोशालक को जिन कहते हैं, क्या यह बात ठीक है ? तब म. महावीर ने गोशालक का जीवन-चरित्र कहा और कहा कि वह जिन नहीं है । वह पहिले मेरा शिष्य था । यह बात नगर में फैलगई, और लोग कहने (२) लगे कि महात्मा महावीर कहते हैं कि गोशालक अपने को जिन कहता है परन्तु उसका
१ तएणं सावत्याए नयीए सिंघाडग जाब पहेस, बहुजणो अन्नमन्नस्स एवं माइक्खइ जाव एवं परूवंह एवं खलु देवाणुप्पिया गोसाले मंखलिपुत्ते जिणे जिण पलावी जाव पगासेमाणे विहरइ ।
___ २-जं पं देवाणुप्पिया गोसाले मस्खलिपुत्ते जिणे जिणप्पलावी जाव विहरइ तं मिच्छा । समणे भगवं महावीरे एवं आइक्खइ जाव परूवेइ। भगवती ।
भगवती ।