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चौथा अध्याय एक अवधिज्ञानी मुनि के लिये किया है, इसका अर्थ यही है कि राजा को जितना भूत भविष्य अपेक्षित है उतना मुनि के अन के बाहर नहीं है और इतने से ही राजान मुनिको सर्वज्ञरूप वर्णित कर दिया।
इन उदाहरण- से मालूम होता है कि कविवर वीरनन्दि एक अवविज्ञानी मुनि को सब जाननेवाला कहते हैं। अवधिज्ञानी सब नहीं जानता इसलिये यहाँ पर 'सब' शब्द का अर्थ यही है कि जितने में राजाके प्रश्न का उत्तर हो जाय । पिछले उद्धरण में तो राजा भी अपने विषय में कहता है कि मुझे संसार की सब दशाओं का ज्ञान है । यहाँ भी 'सत्र' का अर्थ संसार की अनित्यता, अशरणता आदि वैराग्योपयोगी बातें हैं न कि सब पदार्थों की सब अवस्थाओं का ज्ञान ।
इसी प्रकार हरिवंशपुराण आदिक उदाहरण दिये जा सकते है। उसमें भी अवधिज्ञानी मुनि को त्रैलोक्यदेी (१) कहा है। एक बढ़िया उदाहरण और लीजिये ।
जिस समय पवनञ्जय के हृदय में अञ्जनाको देखने की लालसा हुई तब वह अपने मित्र प्रहस्त से कहता है 'मित्र ! तीन लोककी सम्पूर्ण चेष्टाओं को जाननेवाले तुम सरीखे चतुर मित्र को छोड़कर मैं किससे अपना दुःख कहूँ ?' (२)
प्रहस्त की त्रिलोकज्ञता का अर्थ इतना ही है कि वह पवन
(१) हरिवंश-सर्ग श्लाक १९ ८७।
(२) सखे कस्य वदान्यस्य दुःखमेतान्नवद्यते । मुक्त्वा त्वां विदिताशेषजगत्रयावचाष्टतं ॥
पद्मपुराण १५.-१२१॥