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वास्तविक अर्थका समर्थन
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याज्ञ वास्तव में आत्मज्ञ ही है। इस तरह के कथन अन्य जैनग्रंथों में भी मिलते हैं ।
प्रश्न- आपने पहिले सर्वज्ञ का अर्थ पूर्ण धार्मिक ज्ञानी किया है किन्तु यहाँ आप आत्मज्ञानी को सर्वज्ञ कहते हैं । इन दोनों की संगति कैसे होगी ?
उत्तर - उपर्युक्त आत्मज्ञान ही वास्तव में केवलज्ञान है | परन्तु उस केवलज्ञान को प्राप्त करने के लिये जो व्यावहारिक धर्मज्ञान है वह भी केवलज्ञान कहा जाता है । आत्मोद्धार की दृष्टि से तो आत्मज्ञान ही केवलज्ञान है किन्तु जगदुद्धार के लिये केवलज्ञान वही है । कि पहिले बताया गया है, जिससे जगत् की समस्याएँ हल होती हैं ।
गये है। एकको
जैनशास्त्रों में दो तरह के केवली बतलाये केवली कहते हैं दूसरे को श्रुत - केवली कहते हैं । दोनों ही पूर्ण धर्मज्ञानी माने जाते हैं । परन्तु जिसका धर्मज्ञान अनुभवरूप हो जाता है और जिसे उपर्युक्त अत्मज्ञान हो जाता है, उसे केवली कहते हैं; किन्तु जिसका ज्ञान अनुभवमूलक नहीं होता और जिसे उपर्युक्त आत्मज्ञान नहीं होता वह श्रुतकेवली कहलाता है । केवली प्रत्यक्षज्ञानी कहलाता है और श्रुतकेवली परोक्षज्ञानी कहा जाता है।
लीको ज्यों ही आत्मज्ञान प्राप्त होता है त्यों ही वह केवली कहलाने लगता है । बाह्यदृष्टि से दोनों ही समान ज्ञानी हैं किन्तु आभ्यंतर दृष्टि से दोनों में बहुत अंतर है । इस प्रकार के भेद दूसरे दर्शनों में भी किये गये हैं। मुंडकोपनिषद् में लिखा है :--