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चौथा अध्याय 'बहुत थोड़ा' करना चाहिये । क्योंकि कोई जीवनभर बोलता. रहे, तो भी अनंत अक्षर नहीं बोल सकता; एक अक्षर भी; अगर इरुतनिबद्ध हो तो वह संख्यातवाँ भाग ही कहलायगा । शास्त्री म जहाँ गुणों की या भावों की तरतमता बताई जाती है या उससे मतलब होता है वहाँ अनंतभाग कह दिया जाता है ।
... प्रश्न-रुतीनबद्धभाग अनंतभाग भले ही न हो परन्तु केवली की वाणी से कम तो अवश्य है। ऐसी हालत में केवलज्ञान और श्रुतज्ञानका विषय बराबर कैसे कहा जा सकता है. ? .
. उर-रुतनिबद्ध-शब्दों के समूह को श्रुतज्ञान नहीं कहते किन्तु उससे जो ज्ञान पैदा होता है उसे श्रुतज्ञान कहते हैं। तीव्र मतिवाला मनुष्य, थोड़े शब्दोंसे भी बहुत ज्ञान कर लेता है । इसलिये केवली जो कुछ कहना चाहते हैं किन्तु शब्दों में उतनी शक्ति न होने से वे कह नहीं पाते उसे श्रुतकेवली उनके थोड़े शब्दों से ही जान लेता है। मतलब यह है कि केवली और श्रुतकेवली के बीच जो शब्द-व्यवहार है वह थोड़ा होनेपर भी उसका कारणरूप केवली का ज्ञान और कार्यरूप रुतकेवली का ज्ञान एक बराबर होता है । द्वादशा की उत्पत्ति पर विचार करने से भी यही वात सिद्ध होती है ।
जितना द्वादशांग का विस्तार है उतना तीर्थकर नहीं कहते वे तो बहुत संक्षेप में कहते हैं किन्तु वंश बुद्धिधारी गणधर उसका विस्तार करके द्वादशांग बना डालते हैं १ । इसी प्रकार केवली के
.. १ सो पुरिसावेक्खाए थोवं भणइ न उ वारसंगाई । अथो तदविक्साए, मुत्तं चियंगणहराण तं ।।
१.१२३ - विशेषावश्यक