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वास्तविक अर्थका समर्थन
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विचार में कील
ही द्वार से प्रवेश किया जाता है। किसी वस्तु रागता मुख्य है न कि वह ऋतु । प्रारम्भ में तो वह अनेक वस्तुओं पर विचार करता है परन्तु अन्तमें वह एक ही वस्तु पर विचार करता १ है । ध्यान के लिये किसी नियत वस्तुका चुनाव आवश्यक नहीं है, वह किसी भी वस्तु पर विचार कर सकता है २ । हाँ, विचार करने की दृष्टि नियत है । वह है हेयोपादेयताका ठीक ठीक अनुभव । वस्तु तो अभ्यास का अवलम्बन मात्र है । किसी भी एक अवलम्बन से सिद्धि हो सकती है ।
प्रश्न- यदि किसी एक वस्तुपर विचार करने से केवली बनता है तो केवली बनने के पहिले श्रुतकेवली बनने की आवश्यकता नहीं है ।
उत्तर -- श्रुतकेवली बने बिना पूर्णवीतरागता से ध्यान लगाकर केवली बना जा ककता है । परन्तु यह राजमार्ग नहीं है । राजमार्ग यही है कि पहिले श्रुतकेवली बना जाय । श्रुतकेवली को आत्मोद्वार के मार्ग का पूर्ण और विस्तृत ज्ञान होता है जिसे अनुभवात्मक बनाकर केवली बना जाता है । ऐसा ही केवली आत्मोद्धार के साथ जगदुद्धार कर सकता है । इसलिये केवलज्ञान का कारणभूत शुक्लध्यान रुतवली के ही बताया है । मतलब यह है कि सामान्य
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१ जिस ध्यान में क्रमसे अनेक वस्तुओंपर विचार किया जाता है उसे पृथक् व वितर्क कहते हैं और जिसमें एक वस्तुपर दृढ़ता आजाती है वह एकत्ववितर्क कहलाता है । देखो तत्त्वार्थ. अध्याय नवमा, 'आवचारं द्वितीयम्, 'विचारोsर्थ व्यञ्जनयोग संकान्तिः ' ॥
२जं किं चकि चिंतोनिरहिती हवं जहा साह | लघूणय एवत्तं तदाहृतं तस्माच्चयं शायं । दव्वसंगह |