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चौथा अध्याय
राजमार्ग यही है कि इरुतकेवली बने बिना शुक्लध्यान नहीं हो सकता १ और शुशुक्लध्यान के बिना केवलज्ञान नहीं हो सकता | परन्तु शास्त्रों में ऐसे भी दृष्टान्त मिलते हैं जो केवली बने बिना केवली बन गये हैं। ख़ास कर गृहस्थावस्था में रहते हुए ही जिनको केवलज्ञान हुआ, अथवा नवदीक्षित होते हां जो केवली हो गये अर्थात् अंगपूर्वी का पूर्ण अभ्यास करने का जिनको समय नहीं मिला अथवा जिनने जैनलिंग वारण नहीं किया और पूर्ण वीतरागता २ प्राप्त करके केवलज्ञान पैदा किया, वे इरुतकेवली बने बिना ही केवली गये हैं ।
1.
तत्त्वार्थ में इस विषय में सूत्ररूप प्रमाण मिलता है । मुनि पाँच तरह के होते हैं। चौथा भेद निग्रंथ और पाँचवाँ स्नातक है स्नातक अरहन्तको कहते हैं । अरहन्त के समान पूर्णवीतराग अर्थात् यथाख्यात चारित्रधारी मुनि निर्बंध कहलाता है । यह निथ बारहवें गुणस्थान में ३ होता है । बारहवें गुणस्थान के लिये श्रेणी चढ़ना आवश्यक हैं और श्रेणी के लिये शुक्लधान आवश्यक है और शुक्लध्यान के लिये श्रुतकेवली होना आवश्यक हैं, इसलिये प्रत्येक निर्बंथ मुनि
शुक्लेचाद्येपूर्वविदः-'तत्त्वार्थ ९ ३७ । 'पूर्वविदः श्रुतकेवालनः इत्यर्थः ' सर्वार्थसिद्धि । ' आयेशुक्लेप्याने पृथक्त्वावतर के क वबितकें पूर्व विदोभवतः’
त० भाग्य ९ ३९ ।
२ इस बातका विवेचन पाँचवें अध्याय में किया जायगा । ३ उदके दंड राजिव संनिरस्त कर्माणोंतर्मुहूत केवल ज्ञान-दर्शन-प्रापिणा निर्मथाः । राजवात्तिक ९-४६-४ । निर्यथस्नातकाः एकस्मिन्नेव यथाख्यात संयमे । त० वा० ९-४७-४ । निर्ग्रथस्नातको एकस्मिन् यथाख्यातसंयमे ।
९-४९ त भाग्य |
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