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'चौथा अध्याय
शास्त्रों में जो मुंडकेवलियों का वर्णन आता है उनकी उपपत्ति भी इसी अर्थ में बैठ सकती है। मुंडकेवली १ उन्हें कहते हैं जो अपना उद्धार तो कर लेते हैं किन्तु सिद्धान्तरचना नहीं करते, व्याख्यानादि नहीं देते । ये बाह्यातिशयशन्य होते हैं । इन केवलियों के मूक होने का और कोई कारण नहीं है, सिवाय इस बात के कि उनने रहतकेली होकर केवलज्ञान नहीं पाया जिससे व्याख्यान आदि दे सकते । ये केवली बाह्यज्ञान में श्रुतके वलियों से बहुत कम रहते हैं इसलिये इन्हें चुप रहना पड़ता है । इसीलिये इन्हें अतिशय आदि प्राप्त नहीं होते । अगर इनके ज्ञानमें कमी न होती तो कोई कारण नहीं था कि इनका व्याख्यान आदि न होता ।
इन शास्त्रीय विवेचनों से सर्वज्ञ और केवलज्ञान का अर्थ ठीक ठीक मालूम होने लगता है और मुंडकेचली, जघन्यज्ञानी निर्ग्रन्थ आदि की समस्याएँ भी हल हो जाती हैं।
सर्वज्ञताकी बाह्यपरीक्षा (विवि केवली )
सर्वज्ञता की चर्चा खूब विस्तार से सप्रमाण-सयुक्तिककर दी गई है । सर्वज्ञता के स्वरूप के विषय में जो मेरा वक्तव्य है उससे अनेक पुरानी समस्याएँ हल होती हैं, साथ ही ऐतिहासिक घटनाओं का भी समन्वय हो जाता है । बाह्यपरीक्षा से वास्तविक अर्थ के समर्थन के लिये तथा कुछ विशेष प्रकाश डालने के लिये यहां कुछ विवेचन और किया जाता है ।
-आ.ममात्रतारक मुकान्तकृत्केवल्यादिरूप मुंडकेवलिनो ... | स्याद्वादमजरी ।